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४४ कवि-किरीट आचार्य रामचन्द्र
आचार्य रामचन्द्र हेमचन्द्राचार्य के उत्तराधिकारी थे। वे प्राञ्जल प्रतिभा के धनी थे। उस युग के इने-गिने विद्वानो मे उनकी गिनती होती थी। आचार्य हेमचन्द्र की साहित्यकार शिष्य मडली मे भी उनका सर्वोत्कृष्ट स्थान था।
एक बार महाराज जयसिंह ने हेमचन्द्राचार्य से उनके उत्तराधिकारी का नाम जानना चाहा। उस समय हेमचन्द्राचार्य ने मुनि रामचन्द्र को ही उनके सामने प्रस्तुत किया था।
हेमचन्द्राचार्य के प्रति महाराज जयसिंह सिद्धराज जैसा ही धार्मिक अनुराग महाराज कुमारपाल मे भी था। हेमचन्द्राचार्य के स्वर्गवास की सूचना पाकर कुमारपाल का हृदय विरह-वेदना से विक्षुब्ध हो उठा। उस सकट की घडी को धैर्य के साथ पार करने मे मुनि रामचन्द्र का योग अत्यन्त सहायक सिद्ध हुआ।
रामचन्द्राचार्य ने हेमचन्द्राचार्य के उत्तराधिकार को सम्भाला और उनकी साहित्यिक सृजनात्मक धारा को भी गतिशील बनाए रखा। साहित्य-जगत् रामचन्द्राचार्य की रमणीय रचनाओ से अलकृत हुआ। __समस्या-पूर्ति मे विविध भाव-भगिमा को प्रस्तुत करने वाले वे वेजोड शब्दशिल्पी थे। उनकी स्फुरणशील मनीपा-मदाकिनी मे कल्पना-कल्लोले अत्यन्त वेग से हिलोरे लेती थी। एक वार का प्रसग है । ग्रीष्म ऋतु का समय था। जयसिंह सिद्धराज क्रीडा करने के लिए उद्यान मे जा रहे थे। सयोग से आचार्य रामचन्द्र का मार्ग मे मिलन हुआ। औपचारिक स्वागत के वाद सिद्धराज ने आचार्य जी से एक प्रश्न किया
___ कथ ग्रीष्मे दिवसा गुरुतरा ? -ग्रीष्म ऋतु मे दिन लम्वे क्यो होते है ? आचार्य ने इस प्रश्न के उत्तर मे तत्काल एक सस्कृत श्लोक की रचना की
देव | श्रीगिरिदुर्गमल्ल | भवतो दिग्जैनयात्रोत्सवे । धावद्वीरतुरगनिष्ठुरखुरक्षुण्णक्षपामण्डलात् ।। वातोद्धृतरजोमिलत्सुरसरित्सजातपकस्थली। दूर्वाचुम्बनचञ्चुरा रविहयास्तेनैव वृद्ध दिनम् ।।