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________________ ४३. चैत्य-पुरुष आचार्य जिनचन्द्र (मणिधारी) खरतरगच्छ के श्री मणिधारी जिनचन्द्र सूरि भी बडे दादा के नाम से प्रसिद्ध है। जैन मन्दिरमार्गी समाज मे चार दादा सज्ञक आचार्यो मे उन्हे द्वितीय क्रम प्राप्त हुआ। वे जिनदत्त सूरि के पट्ट शिष्य थे। छह वर्ष की अवस्था मे दीक्षा और आठ वर्ष की अवस्था मे आचार्य पद से विभूषित होने वाले मणिधारी आचार्य जिनचन्द्र सहस्राब्दियो के इतिहास मे विरले आचार्य थे। उनके मस्तक मे मणि होने के कारण उनकी प्रसिद्धि मणिधारी जिनचन्द्र सूरि के रूप में हुई। उनका व्यक्तित्त्व अनेक गुणो से मडित था। उनके गर्भ मे आने से पहले ही जिनदत्त सूरि को महान् आत्मा के आगमन का आभास हो गया था। महान् आत्मा का सबध उन्होने जिनचन्द्र सूरि के साथ जोडा। ___मणिधारी जिनचन्द्र सूरि विक्रमपुर के रासल श्रेष्ठी के पुत्र थे। उनका जन्म वी०नि० १६६७ (वि० ११९७) भाद्र शुक्ला अष्टमी ज्येष्ठा नक्षत्र मे हुआ। आचार्य जिनदत्त सूरि द्वारा वी० नि० १६७३ (वि० १२०३) मे उनकी दीक्षा और वी०नि० १६७५ (वि० १२०५) मे आचार्य पद पर नियुक्ति हुई। उनकी तीक्ष्ण प्रतिभा ने थोडे ही समय मे अगाध ज्ञान राशि का अजंन कर लिया था। दिल्ली के महाराज मदनपाल उनकी असाधारण विद्वत्ता पर मुग्ध होकर उनके अनन्य भक्त बन गये थे। चैत्यवासी पद्मचन्द्राचार्य जैसे उद्भट्ट विद्वान् को शास्त्रार्थ मे पराजित कर देने से उनकी यश चन्द्रिका दिदिगन्त मे व्याप्त हुई। जिनदत्त सूरि का स्वर्गवास बहुत जल्दी ही हो जाने के कारण तेरह वर्ष की अवस्था मे ही उनके कन्धो पर सम्पूर्ण गच्छ का भार आ गया जिसे बहुत कुशलता के साथ उन्होने वहन किया था। उन्होंने त्रिभुवन गिरि मे श्री शान्तिनाथ शिखर पर वी० नि० १६८४ (वि० १२१४) मे धर्म की गगा वेग से प्रवाहित की और मथुरा मे पहुचकर
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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