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३२४ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
महारागो महाद्वेपो, महामोहस्तथैव च ।
कपायश्च हतो येन, महादेव स उच्यते ॥ -जिसने महाराग, महाद्वेप, महामोह और कपाय को नष्ट किया है, वही महादेव है। ___ आचार्य हेमचन्द्र की इस मर्वधर्मममन्वयात्मक नीति ने कुमारपाल को जैन धर्म के प्रति अधिक प्रभावित किया। कुमारपाल के साथ 'परमहित' विशेषण उनके जैन होने का सूचक है।
हेमचन्द्र नि सन्देह अलौकिक विभा मे परिपूर्ण थे। उनके श्रुतज्ञान वैभव को पाकर समूचा गुजरात ही पुलक उठा और भारतीय सस्कृति में अभिनव प्राणो का संचार हुआ था। साढे तीन करोड से भी अधिक श्लोको की रचना कर कलिकाल-सर्वज्ञ ने सरस्वती मा के खजाने को भक्षयनिधि से भर दिया। और कुमारपाल जैसे गुजर शाशक को व्रत स्वीकार कराकर जैनशासन के गौरव को हिमालय से भी अत्युच्चतम शिखर पर चढा दिया था।
सयम-साधना और माहित्य-साधना का उनका दीप तिरेसठ वर्ष की आयु तक अविरल जलता रहा और उससे जन-जन को मार्ग-दर्शन मिलता रहा। आचार्य हेमचन्द्र पाटण मे वीर निर्वाण १६६६ (विक्रम १२२६) मे चौरासी वर्ष की आयु सम्पन्न कर स्वर्गगामी बने । हेमचन्द्र का युग जैन धर्म के महान् उत्कर्ष का था।
आधार-स्थल
(प्रभा० चरित, पृ० १८३)
१ जैनशासनपाथोधिकौस्तुभ समवी सुत ।
तव स्तवकृतो यस्य देवा अपि सुवृत्तत ॥१६॥ २ तमादाय स्तम्भतीर्थ जग्म श्री पार्श्वमन्दिरे ।
माघे सित चतुर्दश्यां ग्राह्ये धिष्ण्ये शन दिने ॥३२॥ धिष्ण्ये तथाष्टमे धम्मस्थिते चन्द्रे वृषोपणे । लग्ने बृहस्पती शत्रु स्थितयो सूयभीमयो ॥३३॥ श्रीमानुदयनस्तस्य दीक्षोत्सवमकारयत् । सोमचन्द्र इति ख्यात नामास्य गुरवो दधु ॥३४॥ तदा च पाहिनी स्नेहवाहिनी सुत उत्तमे । तन चारित्नमादत्ताविहस्ता गुरुहस्तत ॥६१॥ प्रवतिनी प्रतिष्ठा च दापयामास नम्रगी। तदेवामिनवाचार्यों गरुम्य सभ्यसाक्षिकम् ॥२॥
(प्रभा० चरित, पृ० १८४)
(प्रभा० चरित, पृ० १८४-१८५),