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१४ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
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___ आचार्य उमास्वाति का तत्त्वार्थ सूत्र जैन तत्त्वो का सग्राहक सूत्र है। जैन तत्वो के विवेचन मे यह आधारभूत ग्रन्थ माना गया है।
षट्खण्डागम, कषाय प्राभूत और समयसार आदि ग्रन्थो को दिगम्बर 'परम्परा मे आगमवत् उच्चतम स्थान प्राप्त है।
आगमयुग का यह साहित्य आगमपरक होने के कारण आगम प्रवृत्ति को ही 'परिपुष्ट करता है।
अनुयोग व्यवस्था
अनुयोग व्यवस्था आगम के पठन-पाठन का एक सुव्यस्थित और सुनियोजित क्रम (सूत्र और अर्थ का समुचित सम्बन्ध) है । अनुयोग चार है- (१) द्रव्यानुयोग (२) चरणकरणानुयोग (३) धर्मकथानुयोग (४) गणितानुयोग । पहले इन चारो अनुयोगो की भूमिका पर प्रत्येक आगम सूत्र का पठन-पाठन होता था। यह अत्यन्त दुरूह पठन प्रणाली थी। आर्य दुर्वलिकापुष्यमिन जैसे प्रतिभासम्पन्न शिष्य भी इस अध्ययन क्रम मे असफल होते प्रतीत हुए। आर्यरक्षित ने इस कठिनता का अनुभव किया और शिक्षार्थी श्रमणो की सुविधा के लिए आगम पठन पद्धति को चार भागो मे विभक्त कर दिया।" आगम वाचना की दिशा में यह एक शैक्षणिक क्रान्ति थी। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव ही था कि इस अनुयोग व्यवस्था को सघ ने निर्विरोध स्वीकार कर लिया।
'परम्परा-भेद का जन्म
वीर निर्वाण की सातवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध मे अविभक्त जन श्रमण-सघ श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो विशाल शाखाओ मे विभक्त हो गया था। श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार वी०नि०६०६ (वि० स० १३६) मे दिगम्बर मत की स्थापना हुई। दिगम्बर मत के अनुसार वी०नि० ६०६ (वि० १३६) मे श्वेताम्बर मत का अभ्युदय हुआ।
भेद का प्रमुख कारण वस्त्र था। दोनो परम्परामो का नामकरण भी वस्त्रसापेक्ष है। एक परम्परा मुनियो के द्वारा वस्त्र ग्रहण को परिग्रह नहीं मानती। दूसरी परम्परा सर्वथा इसके विरोध मे है। आचार्य जम्बू के बाद जिनकल्पी अवस्था का विच्छेद और 'मुच्छा परिगहो वुत्तो'-~-सयम धारणार्थ वस्त्र ग्रहण परिग्रह नहीं है इस आगम-वाक्य से आचार्य शय्यभव द्वारा वस्त्र का प्रबल समर्थन अन्तविरोध की प्रतिक्रिया प्रतीत होती है। दोनो परम्परामो मे प्रथम जन्म किसका हुआ यह अनुसन्धान का विषय है।
जैन सघ मे नाना गणो, कुलो, गच्छो और शाखाओ के निर्माण का सुविस्तृत