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३५ वर वर्चस्वी आचार्य वीर
वीराचार्य चन्द्रगच्छ की पाडिल्ल शाखा के आचार्य थे। वे विजयसिंह सूरि जी के शिष्य थे। वे योगविद्या के धनी थे। गुजरात का राजा सिद्धराज उनकी विद्वत्ता पर मुग्ध था। ___अणहिल्ल पाटणपुर सिद्धराज की निवासस्थली थी। कुछ समय तक वहा वीराचार्य का विराजना हुआ । गाढ मित्रता के कारण एक दिन सिद्धराज ने प्रार्थना की "आपको सदा-सदा के लिए यही विराजना होगा। अन्यत्र कही आपका विहार मेरी इच्छा के प्रतिकूल है।"
वीराचार्य ने कहा-"किसी कारण-विशेप के बिना एक स्थान पर सदा-सदा के लिए रहना मुनियो का आचार नही है।
मोहमूढता के कारण राजा को यह बात मान्य नहीं हुई। उसने कहा-"मैं आपको किसी भी प्रकार जाने नही दूगा।" नगर के बाहर हर दरवाजे पर राजा ने कडा पहरा लगा दिया।
वीराचार्य ने यह बात सुनी। वे राजा को अपनी विद्या का चमत्कार दिखाना चाहते थे । सन्ध्या-प्रतिक्रमण के बाद वे महायोग प्राणव्य विद्या के द्वारा व्योममार्ग से सीधे पल्लीग्राम मे पहुच गए।
प्रभात मे राजा सिद्धराज को इस घटना की सूचना मिली। उसे बहुत दुख हुआ। कुछ दिनो बाद पल्ली के कुछ ब्राह्मण राजा के पास आए और उन्होने वीराचार्य के पल्लीग्राम मे पदार्पण की तिथि-वार सहित वात कह सुनाई । राजा घटना को सुनकर बहुत विस्मित हुआ। उसने मन्त्रियो के साथ अपनी नगरी मे पर्दापण के लिए वीराचार्य को आमन्त्रण भेजा।
गाव-नगर विहरण करते हुए सूरि जी का अणहिल्ल पाटणपुर मे आगमन हुआ। राजकृत भारी सम्मान के साथ नगरी मे सूरि जी का प्रवेश करवाया गया। वहा पर गोविन्दसिंह सूरि जी की सहायता से वीराचार्य ने वादीसिंह साख्य विद्वान् को धर्मचर्चा मे पराजित किया। सिद्धराज ने इस प्रसग पर वीराचार्य को 'जय पन' प्रदान किया। महावोधपुर मे वाद-कोशल पर उन्हे राजा के द्वार छन-चामर आदि भेंट किए गए थे।