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२८२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
अपनी कृति का नाम उपासकाध्ययन देना आचार्य सोमदेव की मौलिक सूझबूझ का परिणाम है । यशस्तिलक का एक भाग होते हुए भी उपासकाध्ययन स्वतन्त्र ग्रन्थ-सा प्रतीत होता है। यह ग्रन्थ छियालीस कल्पो मे विभाजित है एव प्रत्येक कल्प सारभूत बातो से गभित है। वैशेपिक, जैमनीय, कणाद, ब्रह्माद्वैत आदि अनेक दर्शनो की समीक्षा के साथ जैन दर्शन का विस्तार से प्रतिपादन इस कृति को जैन साहित्य मे महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान करता है।
आचार्य सोमदेव वचपन से ही तर्कशास्त्र के अभ्यासी विद्यार्थी थे। गाय घास खाकर जैसे दूध देती है, उसी प्रकार आचार्य सोमदेव की तर्कप्रधान वुद्धि से काव्य की धारा प्रवाहित हुई है। यशस्तिलक की उत्थानिका मे सोमदेव ने लिखा है
आजन्मसमभ्यस्ताच्छुष्कात्तत्तृिणादिव ममास्या ।
मतिसुरभेरभवदिद सूक्तिपय सुकृतिना पुण्यै ।। शब्दज्ञान के आचार्य सोमदेव महान पायोधि थे। उन्होने यशस्तिलक काव्य मे ऐसे नूतन शब्दो का प्रयोग किया है जो अन्यत्र दुर्लभ है। अपनी इस शक्ति का परिचय देते हुए पाचवे आश्वास के अन्त मे उन्होने लिखा है
अरालकाल व्यालेन ये लोढा साम्प्रत तु ते।
शब्दा श्री सोमदेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भुतम् ।। -विकराल काल व्याल के द्वारा निगल लिए गए शब्दो का सोमदेव ने प्रस्थापन किया है, इससे अद्भुत और क्या होगा?
आचार्य सोमदेव की कृतियो मे उपासकाध्ययन ग्रन्थ विशेष उपयोगी है। इस ग्रन्थ पर आचार्य समतभद्र के रत्नकरण्ड श्रावकाचार का, आचार्य जिनसेन के महापुराण का, आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन का, आचार्य देवसेन के भाव-सग्रह का प्रभाव परिलक्षित होता है।
उत्तरवर्ती आचार्य विद्वान् अमितगति, पद्मनन्दि, वीरनन्दि, आशाधर, यश कीत्ति आदि ने अपनी ग्रन्थरचना मे उपासकाध्ययन से पर्याप्त सामग्री ग्रहण की है।
आचार्य जयसेन के धर्मरत्नाकर ग्रन्थ मे उपासकाध्ययन ग्रन्थ के अनेक श्लोको का उद्धरण रूप मे उल्लेख हआ है। धर्मरत्नाकर की रचना वि० स० १०५५ मे हुई थी।
विद्वान् इन्द्रनन्दि के नीतिसार मे अन्य प्रभावी जैनाचार्यों के साथ आचार्य सोमदेव का भी नामोल्लेख किया हे एव उपासकाध्ययन ग्रन्थ को प्रमाणभूत माना है।
आचार्य सोमदेव से पूर्व ग्रन्थो मे भी श्रावकाचार-सम्बन्धी सामग्री उपलब्ध होते हुए भी इस ग्रन्य को विद्वानो ने अधिक आदर के साथ ग्रहण किया है, इसका