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२१. शास्त्रार्थ-निपुण सूराचार्य
श्वेताम्बर परम्परा के शक्तिधर सूराचार्य द्रोणाचार्य के शिष्य थे। वे गुजरात के अणहिल्लपुर के क्षत्रिय थे। उनके पिता का नाम सग्रामसिह था। द्रोणाचार्थ और सग्रामसिंह दोनो भाई थे। अणहिल्लपुर के महाराज भीम के वे मामा थे। सूराचार्य के गृहस्थ जीवन का नाम महीपाल था।
महीपाल को विविध विद्याओं में प्रशिक्षित करने का कार्य द्रोणाचार्य ने किया था। एक दिन द्रोणाचार्य ने महीपाल को माता के आदेश से श्रमण दीक्षा प्रदान की और कुछ समय बाद उनकी नियुक्ति गुरु के द्वारा आचार्य पद पर हुई। महीपाल मुनि ही मूराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।
एक वार राजा भोज की सभा का सचिव श्लोक लेकर राजा भीम की सभा मै उपस्थित हुआ। सूराचार्य ने उस ग्लोक के प्रतिवाद में नया श्लोक बनाकर राजा भीम को भेंट किया।
राजा भीम ने वही श्लोक राजा भोज के पास प्रेपित किया। राजा भोज विद्वानो का सम्मान करता था। वह भीम राजा द्वारा भेजे गये श्लोक को पढकर प्रसन्न हुआ और श्लोक के रचनाकार को अपनी सभा मे आने के लिए आमन्त्रण
भेजा।
__सूराचार्य महान् विद्वान् थे। वे अनेक श्रमण विद्यार्थियो को पढाया करते थे और कर्कश स्वरो मे तर्जना दिया करते थे। कभी-कभी काष्ट-दडिका से उन पर प्रहार भी कर देते थे। यह वात द्रोणाचार्य के पास पहुची। उन्होने सूराचार्य को इस कठोर अनुशासनात्मक पद्धति के लिए उपालम्भ भी दिया। सूराचार्य ने कहा, "मैं इनको वाद-कुशल बनाने की दृष्टि से कटु शब्दो मे ताडना देता हू।" द्रोणाचार्य शिक्षार्थी श्रमणो का समर्थन करते हुए बोले, "इनको वाद-कुशल बनाने के लिए पहले तुम स्वय राजा भोज की सभा मे विजयी बनकर आए हो?"
गुरु की यह बात सूराचार्य के हृदय मे चुभ गयी। उन्होने भोज की सभा मे वाद-जयी बनने से पहले किसी भी प्रकार के सरस आहार (विगय) न लेने की प्रतिज्ञा ले ली। सूराचार्य प्रस्थान की तैयारी कर ही रहे थे, राजा भोज का निमन्त्रण भी आ पहुचा । गुरु का आदेश और महाराजा भीम का आशीर्वाद पाकर