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सिद्धि-सोपान आचार्य सिद्धपि २७३
आचार्य उद्योतन के वचनों से सिद्धपि चिन्न हुए और प्रत्युत्तर मे बोले, "सूर्य के सामने खद्योत की क्या गणना है ? महान् विद्वान् हरिभद्र के कवित्व की तुलना मेरे जैसा मन्दमति व्यक्ति कैसे कर सकता है ?"
आचार्य उद्योतन एव महर्षि के बीच वार्तालाप का प्रसग समाप्त हो गया पर गुरुभ्राता के द्वारा कही गयी यह बात आचार्य मिद्धपि के लिए मार्गदर्शक वनी । उन्होंने 'उपमिति भव प्रपच' नामक महाकथा की रचना की । यह कथा सुधी जनो के मस्तक को भी विधूनित करने वाली उपशमभाव से परिपूर्ण थी। इसे सुनकर लोग प्रसन्न हुए और धर्म मघ ने उनको 'सिद्ध व्याख्याता' की उपाधि दी ।
यह कथाप्रय भारतीय रुपक प्रथो मे शिरोमणि ग्रंथ माना गया है। इस ग्रथ भाषाका लालित्य ली-सौष्ठव और उन्मुक्त निर्झर की तरह भावो का अस्खलित प्रवाह है। टा० हर्मन जेकोबी ने इस पर भग्रेजी मे प्रस्तावना लिखी है । ग्रथ-गौरव के विषय में उनके शब्द है
"I did find something still more important The great. literary value of the U. Katha and the fact that it is the first allegorical work in Indian Literature
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--मुझे अधिक महत्त्वपूर्ण वस्तु उपलब्ध हुई है, वह है 'उपमिति भव प्रपच कथा' जो मूल्यवान साहित्यिक कृति है एव भारतीय साहित्य का यह प्रथम रूपक ग्रंथ है ।
यह ग्रथ मारवाड के भीनमाल नगर मे ज्येष्ठ शुक्ला पचमी गुरुवार के दिन सम्पन्न हुआ था ।
आचार्य सिद्धपि के पाम विशेष वचन सिद्धि भी थी। उनके मुख से सहजत जो कुछ कह दिया जाता था वह उमी म्प मे फलित हो जाता था, भत उनका सिद्ध नाम सार्थक भी था ।
'उपमिति भव प्रपच' कथा का रचना -काल वी० नि० १४३२ (वि० ९६२)
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उपदेशमाला कृति का रचना - काल वी० नि० १४४४ (वि० ६७४) है । प्रस्तुत दोनो प्रमाणो के आधार पर आचार सिद्धपि वीर निर्वाण १५वी ( वि० १०वी) सदी के विद्वान् सिद्ध होते हैं ।
सयम् श्रीसम्पन्न आचार्य सिद्धपि सिद्धि-सदन के सुगम सोपान थे ।