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________________ २७२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य सिद्धर्षि को समझाने मे पुन -पुन प्रयास नही करना पड़ा था। वे एक ही वार मे सफल हो गए थे। वौद्ध भिक्षु की मुद्रा मे सिद्धपि को अपने सामने उपस्थित देखकर उन्होने कहा-"कोई बात नही, तुम बौद्ध भिक्षु बन चुके हो। थोडी देर के लिए रुको, इस ग्रथ को पढो। मैं अभी वाहर जाकर आता हू । ग्रथ को पढते ही सिद्धर्षि के विचार परिवर्तित हो गए।" गर्गपि के आने पर वे उनके चरणो मे झुके और अपनी भूल पर अनुताप करते हुए वोले-"मैं हरिभद्र को नमस्कार करता हूँ जिनकी कृति ने मेरे मानस की कालिख को धो डाला है। यह अथ ललित (ललित विस्तरा वृत्ति) मेरे हेतु सूर्य की भाति पथ-प्रकाशक सिद्ध हुआ है।" सिद्धर्षि के परिवर्तित विचारो से गर्षि प्रसन्न हुए। उन्होने तत्काल जैन दीक्षा प्रदान कर आचार्य पद पर उन्हे नियुक्त कर दिया। सिद्धर्षि को हरिभद्र के ग्रथ से बोध प्राप्त हुआ, अत उन्होने हरिभद्र को अपना महा उपकारी माना है। उनकी भावना का प्रतिविम्ब निम्नोक्त श्लोक से स्पष्ट hop महोपकारी स श्रीमान् हरिभद्रप्रभुर्यत । मदर्थमेव येनासौ ग्रन्थोऽपि निरमाप्यत ॥१२॥ (प्रभावक चरित, पृ० १२५) आचार्य सिद्धर्षि ने अपने ग्रथो मे आचार्य हरिभद्र का पुन -पुन गौरव के साथ स्मरण किया है। उनका नमस्कार विपयक प्रभावक चरित्र का श्लोक है विष विनी—य कुवासनामय व्यचीचरद् य कृपया मदाशये। . अचिन्त्य वीर्येण सुवासना सुधा नमोस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये ॥१३२।। आचार्य हरिभद्र सूरि को नमस्कार है। उन्होने विशेष अनुकम्पा कर मेरे हृदय मे प्रविष्ट कुवासना-विप का प्रणाश किया और सुवासना सुधा का निर्माण किया है। यह उनकी अचिन्त्य शक्ति का प्रभाव है। आचार्य पदारोहण के वाद आचार्य सिद्धर्षि ने गुजरात के विभिन्न क्षेत्रो मे विहरण कर धर्म की गगा प्रवाहित की। वे धर्म, दर्शन, अध्यात्म के महान व्याख्याकार, सिद्धहस्त लेखक एव सस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् थे। उन्होने श्री दिवाकर जी के न्यायावतरण पर और धर्मकीर्ति की उपदेश माला पर अत्युत्तम टीकाए लिखी। साहित्य-जगत् की सबसे सुन्दर कृति उनकी 'उपमिति भव प्रपच कथा' है। इस कथा रचना मे महान् प्रेरक आचार्य उद्योतन थे।। कुवलयमाला के रचनाकार आचार्य उद्योतन आचार्य सिद्धर्षि के गुरुभ्राता थे। उन्होने एक दिन सिद्धपि से कहा, "मुने । समरस भाव से परिपूर्ण आकण्ठ तृप्तिदायक समरादित्य कथा की कीर्ति सर्वत्र प्रसारित हो रही है । विद्वान् होकर भी तुमने अभी तक किसी ग्रथ का निर्माण नहीं किया है।"
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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