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२५६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
मृत्यु निश्चित है अत भोज मेरे साथ आए या न आए, मैं दोनो ओर से सुरक्षित नहीं ह। भोज के न आने पर राजा दुन्दुक मेरे पर क्रुद्ध होगा। उसके आने पर दुन्दुक का असमय प्राणान्त होगा। मेरा हित किसी प्रकार से निरापद नहीं है। इधर व्याघ्र है, उधर नदी की धार। मेरा आयुष्य भी दो दिन का अवशिष्ट रहा है। कार्य के परिणाम का गम्भीरता से चिन्तन कर वप्पभट्टि ने अनशन स्वीकार कर लिया। नन्न सूरि, गोविन्द सूरि आदि श्रमणो के लिए उन्होने हित की कामना की। सवको अनित्य भावना का उपदेश दिया। महाव्रतो मे जाने-अनजाने लगे दोषो की आलोचना की। वे अदीन भाव से ८६ वर्ष तक सयम पर्याय का पालन कर वी०नि० १३६५ (वि० ८९५) श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन स्वाति नक्षत्र मे ६५ वर्ष की अवस्था मे स्वर्गवासी बने।"
आचार्य वप्पभट्टि पार्श्वपत्यानुयायी आचार्य रत्नप्रभ के समकालीन थे। इस समय ओसवाल जाति का अभ्युदय हुआ था । आचार्य रत्नप्रभ के चामत्कारिक प्रयोगो से एव उपदेशो से प्रभावित होकर 'ओसिया' नगरी के निवासी क्षत्रिय परिवारो ने सामूहिक रूप से जैन दीक्षा ग्रहण की और वे ओसवाल कहलाए । कई इतिहासकारो के अभिमत से ओसवाल जाति का अभ्युदय वी०नि० १३वी (वि० की वी) शताब्दी के बाद हुआ है । आचार्य वप्पभट्टि का स्वर्गवास इससे कुछ वर्ष पूर्व हो गया था। ____ आचार्य वप्पभट्टि अपने युग के वरिष्ठ विद्वान थे। आचार्य रत्नप्रभ की भाति सामूहिक जैनीकरण का कार्य उन्होने नही किया था, पर जैन शासन की श्रीवृद्धि मे उनके प्रयत्न विशेप रूप से उल्लेखनीय हुए हैं। वप्पभट्टि के गुणानुवाद मे निम्नोक्त श्लोक विश्रुत है।
बप्पभट्टिभद्रकीतिर्वादिकुजरकेसरी। ब्रह्मचारी गजवरो राजपूजित इत्यपि ॥७६६॥ (प्रभा० चरित, पृ० ११०)
आधार-स्थल
१ पड्वपस्य व्रत चेकादशे वर्षे च सूरिता ॥७४०।।
(प्रभा० चरित, पनाक १०६) २ विक्रमत शून्यद्वयवसुवर्षे (९००) भाद्रपदतृतीयायाम् । रविवारे हस्तः जन्माभूद् वप्पभट्टिगुरो ॥७३६॥
(प्रभा० चरित, पनाक १०६), ३ श्री सिद्धसेननामा सूरीश्वरो रानावात्मारामरतो योगनिद्रया स्थित सन् स्वप्न ददर्श । यथा केसरिकिशोरको देवग्रहोपरि क्रीडति ।
(प्रवधकोश, पनाक २६)