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________________ २४६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य तत्त्वज्ञान-पिपासु पाठको के लिए विशेष उपयोगी है। __ आवश्यक सूत्र वृहद्वृत्ति भी आचार्य हरिभद्र की रचना मानी गयी है। इसका श्लोक परिमाण चौरासी हजार था। वर्तमान में यह टीका उपलब्ध नही है। आगम साहित्य के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थो पर भी आचार्य हरिभद्र ने कई टीकाए लिखी। ___ तत्त्वार्थ सूत्र लघु वृत्ति (अपूर्ण टीका) पिण्ड नियुक्ति-वृत्ति, क्षेत्र समास वृत्ति, कर्मस्तव वृत्ति, ध्यान शतक वृत्ति, लघुक्षेत्र समास वृत्ति, ललित विस्तरा (चैत्य वन्दन स्तव वृत्ति), श्रावक धर्म समास वृत्ति, श्रावक प्रज्ञप्ति टीका, सर्वज्ञ सिद्धि टीका, न्यायावतार वृत्ति आदि टीकाए आचार्य हरिभद्र मूरि की अमेय प्रतिभा का बोध करती है। __ योगदृप्टिसमुच्चय वृत्ति स्वनिर्मित योग दृष्टि समुच्चय की व्याख्या है। धर्म सग्रहिणी ग्रथ मे पाच प्रकार के ज्ञान का वर्णन सर्वज्ञ सिद्धि समर्थन तथा चार्वाक दर्शन का युक्तिपुरस्सर निरसन है। सम्यक् दर्शन (सम्यक्त्व) का विवेचन आचार्य हरिभद्र के 'दसण सुद्धि' (दर्शन शुद्धि) ग्रय मे प्राप्त होता है। सावगधम्म (श्रावक धर्म) और सावगधम्म समास (श्रावक धर्म समास) इन इन दोनो कृतियो मे श्रावक धर्म की शिक्षाए तथा वारह व्रतो का विवेचन है। शास्त्रवार्ता समुच्चय टीका भारतीय दर्शनो का दर्पण है। जैनेतर साहित्य पर भी टीका रचना का कार्य आचार्य हरिभद्र ने किया। न्याय-प्रवेश ग्रथ वौद्ध विद्वान् दिड्नाग की रचना है। उस पर भी हरिभद्र ने टीका लिखी और जैनो के लिए वौद्ध दर्शन में प्रवेश पाने का मार्ग सुगम किया। इस टीका से जैनेतर विपयो मे भी हरिभद्र सूरि के अगाध ज्ञान की सूचना मिलती टीका साहित्य की तरह योग साहित्य के आदि-प्रणेता भी हरिभद्र सूरि थे। उन्होने योग-सम्बन्धी नई परिभापाए एव वैज्ञानिक पद्धतिया प्रस्तुत की। योगदृष्टि समुच्चय, योगविन्दु, योगविंशिका, योगशतकम् ये अथ योग-सम्बन्धी अपूर्व सामग्री प्रस्तुत करते है। अष्टाग योग के स्थान पर स्थान-ऊर्ण आदि पचाग योग तथा मित्रा, तारा, वला, दीप्ता आदि आठ यौगिक दृष्टियो का प्रतिपादन उनकी मौलिक सूझ का परिणाम है। चार अनुयोगो पर उन्होने रचना की है । द्रव्यानुयोग मे धर्म सग्रहिणी, गणितानुयोग मे क्षेत्रसमासवृत्ति, चरणानुयोग मे धर्मविन्दु, उपदेश पद और धर्म कथानुयोग मे धूर्तास्यान उनकी सरस कृतिया है। __ अनेकान्त जयपताका व अनेकान्त प्रवेश भगवान् महावीर की अनेकान्त दृष्टि को स्पष्ट करने वाली अत्यन्त गम्भीर रचनाए है । दर्शन जगत् मे ये समादृत हुई है।
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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