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________________ २४४ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य बोला- "गुरुदेव ने कहलाया है—आपने समरादित्य चरित्र को पढा या नहीं? वर का कटु परिणाम जन्म-जन्मान्तर तक भोगना पडता है। आप व्यर्थ ही रोषारुण होकर इतने बडे वर का वन्ध क्यो कर रहे हैं ?" श्रावक के मुख से आचार्य जिनदत्त की शिक्षा को सुनकर आचार्य हरिभद्र का अन्तविवेक जागा । वे हिसा के कार्य से सर्वथा निवृत्त हुए। प्रायश्चित्त ग्रहण कर विशुद्ध हुए। उसके बाद उन्होने आचार्य जिनदत्त द्वारा प्रेषित श्लोको के आधार पर समरादित्य-कथा की रचना प्राकृत भाषा मे की।' हिंसात्मक योजना से सम्बन्धित ये प्रसग आचार्य हरिभद्र के चरित्ननिष्ठ व्यक्तित्व के साथ अप्रासगिक-से लगते है। कथावली-प्रसग के अनुसार आचार्य हरिभद्र के शिष्य जिनभद्र और वीरभद्र थे। चित्रकूट मे आचार्य हरिभद्र के असाधारण प्रभाव से कुछ व्यक्तियो मे ईर्ष्या का भाव पैदा हुआ और उन्होने उनके दोनो शिष्यो को गुप्त स्थान पर मार डाला। यह प्रसग आचार्य हरिभद्र के हृदय मे सुतीक्ष्ण शस्त्र की तरह घाव कर गया। उन्होने अनशन की सोची। उनकी निर्मल प्रतिभा से जैन शासन की प्रभावना की महान् सभावना थी अत सबने मिलकर उन्हे इस कार्य से रोका। ___ आचार्य हरिभद्र ने सघ की बात को सम्मान प्रदान कर अपने चिन्तन को मोडा। शिष्य-सतति के स्थान पर वेज्ञान-सतति के विकास मे लगे। उनकी वृत्तियो का शोध हुआ, पर शिष्यो की विरह-वेदना उनके हृदय मे कम न हुई अत प्रत्येक ग्रथ के साथ उन्होने विरह शब्द को जोडा है। आज भी आचार्य हरिभद्र कृत ग्रथो की पहचान, अन्त में प्रयुक्त यह विरह शब्द है। आचार्य हरिभद्र के साधनाशील जीवन की उच्च भूमिका पर यह प्रसग स्वाभाविक और सत्यता के निकट प्रतीत होता है। ____ आचार्य हरिभद्र साहित्य-सुधा-सागर थे। उनकी कृतिया जैन शासन का अनुपम वैभव है। आचार्य हरिभद्र की लेखनी हर विषय पर चली। आगमिक क्षेत्र मे वे सर्वप्रथम टीकाकार थे। आवश्यक दशवैकालिक, नन्दी, अनुयोग द्वार प्रज्ञापना, प्रज्ञप्ति और जीवाभिगम इन आगमो पर उन्होने टीकाए लिखी। पिंड-नियुक्ति की उनकी अपूर्ण टीका को वीराचार्य ने पूर्ण की थी। विविध विषयो का विवेचन करती हुई उनकी टीकाए महान् ज्ञानवर्धक सिद्ध हुई। प्रज्ञापना टीका प्रज्ञापना सूत्र के पदो पर है। यह सक्षिप्त और सरल टीका है। आवश्यक वृत्ति आवश्यक नियुक्ति पर है। नियुक्ति गाथाओ की व्याख्या मे आवश्यक चूणि का पदानुसरण नही है। इसमे सामायिक आदि सभी पदो पर बहुत विस्तार से विवेचन है तथा विस्तृत रुचि रखने वाले पाठको के लिए अत्यन्त उपयोगी है। इस टीका की परिसमाप्ति मे जिनभट्ट, जिनदत याकिनी महत्तरा जी आदि का उल्लेख करते हुए
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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