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२२२ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
आचार्य • भद्रबाहु ने दश निर्युक्तियो की रचना की थी । ' उनमे अधिकाश निर्युक्तिया आगम साहित्य पर हैं । आवश्यक निर्युक्ति उनकी सबसे प्रथम रचना है । आवश्यक सूत्र मे निर्दिष्ट छह आवश्यक का विस्तृत विवेचन इस निर्युक्ति मे हुआ है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का जीवनचरित्र, गणधरवाद, आर्यवज्र - स्वामी, आर्य रक्षित आदि अनेक ऐतिहासिक प्रसगो को प्रस्तुत करती हुई यह निर्युक्ति अति महत्त्वपूर्ण है ।
आचाराग निर्युक्ति की ३५६ एव सूत्रकृताग नियुक्ति की २०५ गाथाए है। वृहत्कल्प तथा व्यवहार सूत्र की निर्युक्ति अपने भाष्यो के साथ सम्मिश्रित हो गयी है । निशीथ निर्युक्ति आचाराग निर्युक्ति के साथ समाहित है । दशाश्रुतस्कध निर्युक्ति लघुकाय हे । इस नियुक्ति मे श्रुत केवली छेदसूत्रकार आचार्य भद्रबाहु को नियुक्तिकार भद्रबाहु के द्वारा नमस्कार किया गया है ।" प्रस्तुत सून्न के उक्त उल्लेख के आधार पर दोनो भद्रबाहु की स्पष्ट भिन्नता सिद्ध होती है। उत्तराध्ययन निर्युक्ति की ३५६ गाथाए है एव शान्त्याचार्य ने इस पर विशाल टीका लिखी है । दशवैकालिक नियुक्ति मे ३७१ गाथाए है तथा सूत्रार्थ के स्पष्टीकरण में लौकिक-धार्मिक कथाओ का उपयोग किया गया है ।
निर्वेदनी इन चारो कथाओ का निर्देश
आक्षेपणी, विक्षेपणी, सवेगिनी, निर्युक्ति मे मिलता है ।
सूर्य प्रज्ञप्ति पर भी आचार्य भद्रबाहु निर्युक्ति की थी, पर वह बहुत पहले हीट हो चुकी थी । ऋषि-भाषित निर्युक्ति स्वतत रचना है ।
निर्युक्ति साहित्य मे पिंड निर्युक्ति एव ओघ निर्युक्ति का विशेष स्थान है। साधुचर्या के नियमोपनियमो का विशेष रूप से प्रतिपादन होने के कारण इन्हे स्वतंत्र रूप से आगम साहित्य में परिगणित कर लिया गया है। इन दोनो निर्युक्तियो के अतिरिक्त उपर्युक्त शेष समग्र नियुक्तियो के रचनाकार आचार्य भद्रबाहु थे । आगम के पारिभाषिक शब्दों की सुसगत व्याख्या प्रस्तुत कर साहित्य के क्षेत्र मे नवीन विधा का द्वार उन्होने उद्घाटित किया । इस दृष्टि से निर्युक्तिकार आचार्य भद्रबाहु को जैन परम्परा मे मौलिक स्थान प्राप्त है ।
मुनि श्री नथमल जी ( वर्तमान मे युवाचार्य श्री महाप्राज्ञ) द्वारा निर्मित 'जैन 'परम्परा का इतिहास' मे नियुक्ति काल विक्रम की पाचवी - छठी सदी माना है । आचार्य भद्रबाहु के लघु सहोदर वराहमिहिर द्वारा 'रचित पचसिद्धातिका' नामक ग्रन्थ रचना का समय वी० नि० १०३२ श० स० ४२७ विक्रम सवत् ५६२ निर्णीत है ।" उपर्युक्त दोनो प्रमाणो के आधार पर नियुक्तिकार भद्रबाहु का समय वीर निर्वाण की दसवी, ग्यारहवी सदी सिद्ध होता है ।
मुक्ति मंजिल तक पहुचने के लिए आचार्य भद्रबाहु भवाब्धि मे विशाल पोत के समान है ।