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६ भवाब्धिपोत आचार्य भद्रबाहु-द्वितीय
(नियुक्तिकार) निमित्त वेत्ता नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहुश्रुत केवली भद्रवाहु से पश्चाद्वर्ती थे। प्रतिष्ठानपुर के ब्राह्मण कुल मे वे पैदा हुए थे। सुप्रसिद्ध ज्योतिषी वराहमिहिर उनका लघु सहोदर था। गृहस्थ जीवन मे दोनो निर्धन एव निराश्रित थे। ससार से विरक्त होकर एकसाथ उन्होने दीक्षा ली और ज्योतिपशास्त्र के वे प्रकाड विद्वान बने । वराहमिहिर मे प्रतिस्पर्धा का भाव अधिक था। विनय आदि गुणो से सम्पन्न सुशील स्वभावी मुनि भद्रबाहु को सर्वथा योग्य समझकर उन्हे आचार्य पद पर अलकृत किया गया था। इससे पदाकाक्षी वराहमिहिर का अह प्रवल हो उठा। मुनिवेश का परित्याग कर वह प्रतिष्ठान पुर मे पहुचा तथा अपने निमित्त ज्ञान से वहा के राजा जितशत्रु को प्रभावित कर उनका अत्यन्त कृपापान पुरोहित वना। अपने को प्रख्यात करने के उद्देश्य से उसने विचित्र घोपणाए की और जनता को बताया, "सूर्य के साथ उसके विमान मे बैठकर मैने ज्योतिपचक्र का परिभ्रमण किया है। मेरे बुद्धिवल पर प्रसन्न होकर स्वय सूर्य ने ज्योतिष विद्या का मुझे वोध दिया तथा ग्रहमडल एव नक्षत्रो की गतिविधि से अवगत कराया है। मै उनके आदेश से ही जनहितार्थ पृथ्वी पर चक्रमण कर रहा है। ज्योतिषशास्त्र की रचना मैने स्वय की है। ___ज्येष्ठ सहोदर आचार्य भद्रबाहु के व्यक्तित्व को प्रभावहीन करने के लिए उसने अत्यधिक प्रयत्न किए पर सर्वत्र वह असफल रहा। सूर्य-प्रकाश के सामने ग्रह नक्षत्रो का ज्योतिर्मयमडल श्रीहीन प्रतीत होता है। उसी प्रकार श्रावको की प्रार्थना पर भद्रबाहु का पदार्पण प्रतिष्ठानपुर मे होते ही वराहमिहिर का प्रभाव कम होने लगा था।
ज्योतिप के आधार पर वराहमिहिर द्वारा की गयी भविष्यवाणिया निष्फल गयी। अपने नवजात पुन के सम्बन्ध मे शतायु होने की उनकी घोषणा असिद्ध हुई।
लक्षणविद्या, स्वप्नविद्या, मनविद्या एव ज्योतिषविद्या के प्रयोग का गृहस्थ के सम्मुख सभापण करना साधु के लिए वर्जित है। फिर भी जैन धर्म की प्रभावना को प्रमुख मानकर आर्य भद्रबाहु ने निमित्त ज्ञान से लघु सहोदर के नवजात शिशु का आयुष्य सात दिन का घोषित किया था तथा विल्ली के योग से