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सस्कृत-सरोज-सरोवर आचार्य समन्तभद्र २१५
गन्धहस्ती महाभाष्य विद्वानो के अभिमत से चौरासी सहस्र श्लोक परिमाण महाग्रन्थ है। गन्धहस्ती की गन्ध से सामान्य मतगज निस्तेज हो जाते है। इसी प्रकार गन्धहस्ती महाभाष्य प्रतिपन कोपराभूत करने में समर्थ है। देवागम स्तोत्र को इस ग्रन्थ का मगलाचरण रूप मे प्रस्तुत हुआ मानते है। ___ आचार्य समन्तभद्र पडितो के भी पडित और दार्शनिको, योगियो, त्यागियो, तपस्वी सघो तथा वाग्मियो के भी अग्रणी थे। अत उनकी प्रख्याति स्वामी शब्द से भी हुई।
प्रकाड विद्वान् आचार्यों ने भी उनके समर्थ व्यक्तित्व की मुक्तकठ से प्रशसा की है।
आचार्य वादिराज सूरि ने यशोधरचरित्न मे समन्तभद्र को काव्यमणियो का पर्वत कहा है । आचार्य वादीभसिंह सूरि उन्हे सरस्वती की स्वच्छन्द विहार-भूमि कहकर सम्बोधित करते है। जिनसेनाचार्य की दृष्टि मे वे महाकवि वेद्या (ब्रह्मा) हैं व आचार्य भट्ट अकलक की दृष्टि मे कलिकाल मे स्यावाद तीर्थ के प्रभावक
आचार्य शुभचन्द्र ने कवीन्द्र, भास्वान्, अजित जिनसेनाचार्य ने उन्हे कविकुजर, मुनि बन्ध, और आचार्य हरिभद्र ने वादि मुख्यविशेपण से उन्हे विशेषित किया है।
श्रवणबेलगोल के शिलालेख न० १०५ मे वादीय वज्वाकुश, सूक्तिजाल, शिलालेखन० १०८ मे जिनशासन प्रणेता लिखा है। __ आचार्य वर्धमान, आचार्य सकल कीति आदि विद्वानो ने भी आचार्य समन्तभद्र की प्रतिभा का लोहा माना है। __ आचार्य समन्तभद्र विविध गुणो से मडित एव सस्कृत-सरोज-सरोवर थे। वे अपने युग के अनुपम रत्न थे।
आचार्य समन्तभद्र के ग्रन्थो मे कुमारिलभट्ट की शैली का अनुकरण है। कुमारिलभट्ट ईसवी सन् ६२५ से ६८० के विद्वान् माने गए है। इस आधार पर आचार्य समन्तभद्र का समय वी०नि० की १२वी सदी (वि० की ७वी सदी) अनुमानित होता है । कई इतिहासकार आचार्य समन्तभद्र को विक्रम की ५वी सदी के विद्वान् मानते है।
आधार-स्थल
१ इति फणिमडलालकारस्योरगपुराधिपसूनो श्री स्वामिसमन्तभद्रभुने
आप्तमीमासायाम् ।
कृती
(माप्तमीमासा)