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२१४ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
आचार्य समन्तभद्र पहले व्यक्ति है जिन्होने आप्त पुरुषो के आप्तत्व को भी तर्क की कसौटी पर परीक्षा कर उसे मान्य किया है । स्याद्वाद-सम्बन्धी विस्तृत विवेचन एव समर्थन सर्वप्रथम इस ग्रन्थ मे प्राप्त होता है ।
युक्त्यनुशासन
युक्त्यनुशासन अर्थ- गरिमा से परिपूर्ण ग्रन्थ है । इसमे आप्त स्तुति के साथ विविध दार्शनिक दृष्टियो का पर्याप्त विवेचन एव स्व- परमत के गुण-दोपो का निरुपण मार्मिक ढंग से हुआ है । आचार्य विद्यानन्द ने इस पर संस्कृत टीका लिखी है । इस ग्रन्थ की रचना आप्तमीमासा के बाद हुई है। उस सर्वोदय शब्द का प्रथम प्रयोग आचार्य समन्तभद्र की इस कृति मे प्राप्त होता है ।
स्वयभूस्तोत
इस ग्रन्थ मे चतुर्विंशति तीर्थंकरो की स्तवना युक्तिपूर्ण ढंग से की गयी है। ग्रन्थ का दूसरा नाम 'समन्तभद्र स्तोत्र' भी है । इस ग्रन्थ की भाषा अलकारपूर्ण है । आराध्य के चरणो मे अपने को सर्वतोभावेन समर्पित करके समन्तभद्र स्वामी ने अपनी आस्था को सुश्रद्धा कहा है ।" यह उल्लेख इसी ग्रन्थ मे प्राप्त होता है।
स्तुतिविद्या
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जिनस्तुतिशतक स्तुतिविद्या का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ मे चौबीस तीर्थंकरो की स्तुति चित्रकाव्य के रूप मे प्रस्तुत हुई है । सर्व अलकार से अलकृत यह ग्रन्थ भक्तिरस का अनुपम उदाहरण है । चक्र, कमल, मृदग आदि विभिन्न चित्त्रो मे श्लोक-रचना कर संस्कृत साहित्य मे इस ग्रन्थ को आचार्य समन्तभद्र ने महान् उपयोगी वना दिया है ।
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रत्न- करड श्रावकाचार
इस ग्रन्थ मे श्रावको की आचार सहिता तथा रत्ननयी ( सम्यक् ज्ञान, सम्यकू दर्शन, सम्यक् चरित्र) का सम्यक् विवेचन है ।
आचार्य वादिराज सूरि ने इस ग्रन्थ को अक्षय सुखावह की सज्ञा प्रदान है | आचार्य प्रभाचन्द ने इस ग्रन्थ पर रत्न - करट विपमपद व्याख्यान नामक मस्कुन टिप्पण लिखा है। कन्नड टीका साहित्य की रचना भी इस ग्रन्थ पर हुई है । श्रावकाचार-सम्बन्धी मामग्री प्रस्तुत करने वाले ग्रन्थो मे यह ग्रन्थ सर्वोत्तम है ।
आचार्य समन्तभद्र की कई रचनाए वर्तमान मे अनुपलब्ध है । अनुन्ध रचनाओ मे जीवसिद्धि, तत्वानुशासन, प्रमाण पदार्थ, क्पाय प्राभृतिवा, गन्धहस्त महाभाष्य आदि ग्रन्थ है |