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अध्यात्म-प्रधान भारत
भारत अध्यात्म की उर्वर भूमि है। यहा के कण-कण मे आत्मनिर्भर का मधुर संगीत है, तत्त्वदर्शन का रम है और धर्म का अकुरण है। यहा की मिट्टी ने ऐसे नररत्नो को प्रसव दिया है जो अध्यात्म के मूर्त रूप थे। उनके हृदय को हर धडकन अध्यात्म की धडकन थी। उनके ऊर्ध्वमुखी चिंतन ने जीवन को समझने का विशद दृष्टिकोण दिया । भोग में त्याग की वात काही और कमलदल की भाति निलेप जीवन जीने की कला सिखाई।'
चौबीस अवतार ने इस अध्यात्म-प्रधान धरा पर जन्म लिया । गौतम बुद्ध को बोधिमत्त्वो के माध्यम से पुन -पुन यही माना रुचिकर लगा और जैन तीर्थकरो का सुविस्तृत इतिहास इसी आर्यावर्त के साथ जुडा । जैन परम्परा और तीर्थकर - जैन परम्परा मे तीर्थकरो का स्थान सर्वोपरि होता है । नमस्कार महामन्त्र मे सिद्धो से पहले तीर्थकरो का स्मरण किया जाता है। तीर्थकर सूर्य की भाति ज्ञानरश्मियो से प्रकाशमान् और अपने युग के अनन्य प्रतिनिधि होते हैं। चोवीस तीर्थकरो की क्रमव्यवस्था के अनुस्यूत होते हुए भी उनका विराट् व्यक्तित्व किसी तीर्थंकर-विशेष की परम्परा के साथ आवद्ध नहीं होता। मानवता के सद्यः उपकारी तीर्थकर होते हैं।
परम्परा प्रवहमान सरिता का प्रवाह है। उसमे हर वर्तमान क्षण अतीत का आभारी होता है । वह ज्ञान, विज्ञान, कला, सभ्यता, सस्कृति, जीवन-पद्धति आदि गुणो को अतीत से प्राप्त करता है और स्व स्वीकृत एव सहजात गुण सत्त्व को भविष्य के चरणो मे समर्पण कर अतीत में समाहित हो जाता है।
तीर्थकर साक्षात् द्रष्टा, ज्ञाता एव स्वनिर्भर होते हैं। अत वे उपदेशविधि और व्यवस्थाक्रम मे किसी परम्परा के वाहक नही, अनुभूत सत्य के उद्घाटक होते हैं।
भारत भूमि पर वर्तमान अवसर्पिणी काल में प्रथम तीर्थंकर ऋपभनाथ थे।