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सरस्वती-कठाभरण आचार्य सिद्धसेन २०१
को निष्पन्न कर तथा सर्पप मन के प्रयोग (सैन्य सर्जन विद्या) से विशाल सख्या मे सैनिक समूह का निर्माण कर देवपाल को सामर्थ्यसंपन्न वना दिया। युद्ध मे देवपाल की विजय हुई | आचार्य सिद्धसेन राजा देवपाल के लिए सूर्य की भाति पथदर्शक सिद्ध हुए अत विजयोपरान्त देवपाल ने आचार्य सिद्धसेन को 'दिवाकर' की उपाधि - से विभूषित किया । *
निशीथ चूर्णि के अनुसार सिद्धसेन ने अश्व रचना भी की थी।' देवपाल की - भावभीनी मनुहार से आचार्य सिद्धसेन राजसुविधाओ का मुक्तभाव से उपयोग करने लगे । वे हाथी पर बैठते और शिविका का भी प्रयोग करते । 'सिद्धसेन दिवाकर - के साधनाशील जीवन मे शैथिल्य को जडे विस्तार पाने लगी । " श्रावका पौपघशालाया प्रवेशमेव न लभन्ते ।" उनके पास उपासक वर्ग का आवागमन भी 'निषिद्ध हो गया । आचार्य होते हुए भी राजसम्मान प्राप्त कर सघ निर्वहण के दायित्व को उन्होने सर्वथा उपेक्षित कर दिया था। धर्म- सघ मे चर्चा प्रारम्भ हुई दगपाण पुप्फफल अणे सणिज्ज गिहत्थकिच्चाइ | अजया पडिसेवती जइवेसविडवगा नवर ।। १३ ।। प्रवन्धकोश, पृ० १७, १०२८ अचित्त जल, पुष्प, फल, अनपेणीय आहार का ग्रहण एव गृहस्थ कार्यों का अयत्नापूर्वक सेवन श्रमण वेश की प्रत्यक्ष विडम्बना है ।
आचार्य सिद्धसेन के अपयश की यह गाथा आचार्य वृद्धवादी के कानो तक पहुची। वे गच्छ के भार को योग्य शिष्यो के कन्धो पर स्थापित कर एकाकी वहा से चले । कूर्मार देश मे पहुचे । आचार्य सिद्धसेन के सामने वस्त्र से अपने शरीर को आवृत कर उपस्थित हुए । उन्होने सबके सम्मुख एक श्लोक वोला
अणुहल्ली फुल्ल म तोड हु मन आरामा म मोड हु । मण कुसुमेहि उच्चि निरज्जणु हिण्डह काइ वणेण वणु ॥
आचार्य सिद्धसेन बुद्धि पर पर्याप्त वल लगाकर भी प्रस्तुत श्लोक का अर्थ न कर सके। उन्होने मन ही मन सोचा -ये मेरे गुरु वृद्धवादी तो नही है ? पुन - पुन - समागत विद्वान् की मुखाकृति को देखकर आचार्य सिद्धसेन ने वृद्धवादी को पहचाना । "पादयो. प्रणम्य क्षामिता पद्यार्थपृष्टा " चरणो मे गिरकर अविनय की क्षमा याचना की और विनम्र होकर श्लोक का अर्थ पूछा । आचार्य वृद्धवादी बोले -"योगकल्पद्रुम -- श्रमण साधना योगकल्पवृक्ष के समान है । यम और नियम इस वृक्ष के मूल है। ध्यान प्रकाण्ड एव समता स्कन्ध श्री है । कवित्व, वक्तृत्व, यश, प्रताप, स्तम्भन, उच्चाटन, वशीकरण आदि क्रियाए पुष्प के समान है । केवलज्ञान की उपलब्धि मधुर फल है । अभी तक साधना जीवन का कल्पवृक्ष पुष्पित हुआ है । फलवान बनने से पहले ही इन पुष्पो को मत तोड । महाव्रत रूपी पौधो का उन्मूलन मत कर । प्रसन्न मन से अहकाररहित होकर वीतराग प्रभु की