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________________ २०० जैन धर्म के प्रभावक आचार्य आचार्य सिद्धसेन की इस सूक्ष्म ज्ञानशक्ति से विक्रमादित्य प्रभावित हुआ और उसने विशाल अर्थ-राशि का अनुदान किया। सिद्धमेन ने उस अनुदान को अस्वीकार कर दिया। उनकी इस त्यागवत्ति ने विक्रम को और भी अधिक प्रभावित किया तथा धर्मप्रचार कार्य मे उस अर्थराशि का उपयोग हुआ। चित्रकूट मे सिद्धसेन ने विविध औपधियो के चूर्ण से बना एक स्तम्भ देखा। प्रतिपक्षी औषधियो का प्रयोग कर आचार्य सिद्धसेन ने उसमे एक छेद कर डाला। स्तम्भ मे हजारो पुस्तके थी। अत्यधिक प्रयत्न करने पर भी आचार्य सिद्धसेन को उस छेद मे से एक ही पुस्तक प्राप्त हो सकी । पुस्तक के प्रथमपृष्ठ के पठन से उन्हे सर्पप मन्त्र (सैन्य सर्जन विद्या) और स्वर्णसिद्धि योग नामक दो महान् विद्याए उपलब्ध हुई। सर्षप विद्या के प्रभाव से मान्त्रिक द्वारा जलाशय मे प्रक्षिप्त सर्षप कणो के अनुपात मे चौवीस प्रकार के उपकरण सहित सैनिक निकलते थे और प्रतिद्वन्द्वी को पराभूत कर वे पुन जल मे अदृश्य हो जाते थे। हेम विद्या के द्वारा मान्त्रिक किसी भी प्रकार की धातु को सहजत स्वर्ण में परिवर्तित कर सकता था। इन दो विशिष्ट विद्याओ की प्राप्ति से आचार्य सिद्धसेन के मन मे उत्सुकता वढी। वे पूरी पुस्तक को पढ लेना चाहते थे पर देवी ने आकर उनसे पुस्तक को छीन लिया और उनकी मनोकामना पूर्ण न हो सकी। ____ आचार्य सिद्धसेन खिन्नमन वहा से प्रस्थित हुए और जैन धर्म का जन-जन को वोध प्रदान करते हुए गावो, नगरो, राजधानियो मे विहरण करते रहे। पुगी पर डोलते हुए नाग की भाति आचार्य सिद्धसेन की कुशल वाग्मिता से उनकी यश ज्योस्ना विश्व में प्रसारित हुई। मुख-मुख पर उनका नाम गूजने लगा। ____ आचार्य सिद्धसेन भ्रमणप्रिय आचार्य थे । वे चित्रकूट से पूर्व दिशा की ओर प्रस्थित हुए। अनेक ग्राम-देशो मे विहरण करते हुए पूर्व के कूर्मार मे पहुचे । कूर्मार देश का शासक देवपाल था। आचार्य सिद्धसेन से बोध प्राप्त कर वह उनका परम भक्त बन गया। देवपाल की राजसभा मे नित्य नवीन एव मधुर गोष्ठिया होती। आचार्य सिद्धसेन के योग से उन गोष्ठियो की सरसता अधिक बढ़ जाती थी। राजसम्मान प्राप्त कर सिद्धसेन का मन उस वातावरण से मुग्ध हो गया और वे वही रहने लगे। राजा देवपाल के सामने पर चक्र का भय उपस्थित हुआ। राजा को चिंतित देखकर आचार्य सिद्धसेन ने कहा-"मा स्म विह्वलोभू"--राजन्, चिंतित मत बनो। जिसका मै सखा हु विजयश्री उसी की है। सिद्धसेन से सान्त्वना पाकर देवपाल को प्रसन्नता हुई। प्रतिद्वन्द्वी को पराभूत करने मे उनको आचार्य सिद्धसेन से महान् सहयोग प्राप्त हुआ । युद्ध की सकटकालीन स्थिति प्रस्तुत होने पर आचार्य सिद्धसेन ने 'सुवर्ण सिद्धि योग' नामक विद्या से पर्याप्त परिमाण में अर्थ
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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