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३७ जैन सस्कृति-सरक्षक आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण
जैन इतिहास के स्वणिम पृष्ठो मे वाचनाकार आचार्य देवद्धिगणी क्षमाश्रमण का नाम अकित है और रहेगा। उन्होंने क्षत-विक्षत आगम ज्ञान धारा को युग-युग तक स्थायित्व प्रदान करने का जो काय मौलिक सूझ-बूझ से किया उसे समय की धनी परते भी ढाक न सकेगी।
देवद्धिगणी के गृहस्य जीवन का परिचय प्रदान करने वाली प्रामाणिक सामग्री नही के वरावर उपलब्ध है। 'कल्पसून स्थविरावली' के अनुसार क्षान्त, दान्त, मृदुतादि गुणो से सम्पन्न मूत्रार्थ रत्नमणियो के धारक आचार्य देवद्विगणी काश्यप गोत्रीय थे।' लोक श्रुति के आधार पर सौराष्ट्र के राज सेवक कामद्वि क्षत्रिय के वे पुत्र थे। उनकी माता का नाम कलावती था। माता ने ऋद्धि सम्पन्न देव को स्वप्न मे देखा था। उसी स्वप्न के आधार पर पुत्र को देवद्धि सज्ञा से अभिहित किया गया। देवद्धि को मित्र देव द्वारा उद्बोध प्राप्त हुआ। उनके दीक्षा गुरु लोहित्याचार्य थे।
नन्दी मूत्र मे लोहित्याचार्य की समीचीन शब्दो में प्रशस्ति हुई है। मूत्रार्थ के सम्यक् धारक, पदार्थस्थ नित्यानित्य स्वस्प के विवेचक एव शोभन भाव मे स्थित लोहित्याचार्य को वताकर उनके प्रति देवद्धिगणी ने हार्दिक सम्मान प्रकट किया है।
नन्दी स्थविरावली के आधार पर चूर्णिकार जिनदास महत्तर ने देवद्धिगणी को दूष्यगणी का शिप्य माना है।' देवद्धिगणी के शब्दो मे आचार्य दूप्यगणी आगम श्रुत के ज्ञाता थे, समर्थ वाचनाचार्य थे, प्रकृति से मधुर मापी थे, तप, नियम, सत्य, सयम, विनय, आर्जव, मार्दव, क्षमा आदि उत्तम गुणो से सुशोभित ये एव अनुयोगधर युगप्रधान थे। उनके चरण प्रशस्त लक्षणो से युक्त सुकोमल तलवो वाले थे।' ___ आचार्य देवद्धिगणी द्वारा आर्य दूष्यगणी की ज्ञान-सम्पदा के साथ शरीरसम्पदा का भी सूक्ष्म विवेचन दोनो का अत्यन्त नकट्य स्थापित करता है।
मुनि श्री कल्याण विजय जी ने न नन्दी स्थविरावली को गुरुपट्ट परम्परा के रूप मे समर्थन दिया है और न देवद्धिगणी को दूप्यगणी का शिष्य माना है। उनके अभिमत मे करप स्थविरावली के अनुसार देवद्धिगणी आर्य पाडिल्य के शिप्य है।