________________
१८५ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
है । स्थान-स्थान पर अनेक देशी शब्द भी व्यवहृत है । राम का एक नाम 'पद्म' भी है । 'पद्म' नाम के आधार पर इस कृति का नाम 'पउमचरिय' हुआ है । जैन प्रसिद्ध सम्राट् श्रेणिक के सम्मुख गौतम गणधर द्वारा निर्दिष्ट रामकथा का विस्तार इस कृति मे है ।
शलाका-पुरुष का जीवन प्रतिपादित होने के कारण इसे पुराण सज्ञा से अभिहित किया जा सकता है पर शैली की दृष्टि से यह महाकाव्य की अनुभूति कराता है । काव्य की उत्प्रेक्षा रूपक आदि विभिन्न अलकारो से मंडित प्रवाहमयी ओजपूर्ण भाषा एव मालिनी, इन्द्रवज्रा, उपजाति आदि नाना छन्दो मे वद्ध सरस पद्यावलिया पाठक को मधुबिन्दु जैसी रोचकता प्रदान करती है ।
कथा का प्रवाह पूरे काव्य मे सलिल-परिपूर्ण मन्दाकिनी की भाति निर्वाध गति से प्रवहमान है | कही भी काव्यगुणो से प्रभावित होकर उसकी धारा मन्द नही हो पायी है ।
रसप्रधान और भावप्रधान यह ग्रन्थ कथ्य आधार पर पुराण साहित्य के गुणो को एव शैली के आधार पर काव्य गुणो को प्रकट करता है ।
काव्य-परम्परा मे यह उत्तम काव्य है एव जैन पुराण साहित्य का यह ८६५१ श्लोक परिमाण प्रथम पुराण ग्रन्थ है । पुराण साहित्य के अन्वय आदि आठो अगो का प्रस्तुत पुराण मे पर्याप्त विवेचन है ।
रामायण के मुख्य नायक जैन है । राम अत मे श्रमण दीक्षा ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त हुए है। निर्वाण प्राप्ति ही जैन दर्शन के उत्कर्ष का चरम विन्दु है ।
यह कृति पुरुषोत्तम राम के जीवन चरित्र के साथ जैनसम्मत तीर्थकर चक्रवर्ती आदि शलाका-पुरुषो के सम्वन्ध की विविध सामग्री प्रस्तुत करती है ।
आचार्य विमल यथार्थ मे ही विमल प्रज्ञा के धनी थे । उन्होने पउमचरिय जैमी उच्चकोटि की कृति का निर्माण कर जैन शासन को अनुपम उपहार भेट किया है।
रविपेण का 'पद्म चरित्त' ग्रन्थ पउमचरिय का ही रूपान्तरण है ।
आचार्य विमल की द्वितीय रचना हरिवश पुराण वर्तमान मे अनुपलब्ध है । पउमचरिय कृति मे प्राप्त उल्लेखानुसार यह रचना ईसवी सन् प्रथम सदी की है । पर काव्य की भाषा-रचना को देखकर विद्वान् लोग इसे ईसवी सन् दूसरी सदी
पूर्व किसी प्रकार नही मानते । डा० हर्मन याकोवी ने आचार्य विमल का समय ईसवी सन् चौथी सदी माना है । डा० याकोवी के निर्णयानुसार प्राज्ञ प्रवर आचार्य विमल वी० नि० की हवी १० वी सदी के विद्वान थे ।