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१७६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
आचार्य धरसेन की परीक्षाविधि मे भी उभयमुनि पूर्ण उत्तीर्ण हुए और विनयपूर्वक श्रुतोपासना करने लगे । उनका अध्ययन क्रम शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ दिन मे प्रारम्भ हुआ था । आचार्य धरसेन की ज्ञान प्रदान करने की अपूर्व क्षमता एव युगल मुनियो की सूक्ष्मग्राही प्रतिभा का मणि - काचन योग था । अध्ययन का क्रम द्रुतगति से चला । आपाढ शुक्ला एकादशी के पूर्वाह्न काल मे वाचना-कार्य सम्पन्न हुआ था । कहा जाता है, इस महत्त्वपूर्ण कार्य की सम्पन्नता के अवसर पर देवताओ ने भी मधुरवाद्य ध्वनि की थी। इसी प्रसग पर धरमेनाचार्य ने एक का नाम भूतबलि और दूसरे का नाम पुष्पदत रखा था ।
निमित्त ज्ञान मे अपना मृत्युकाल निकट जानकर धरसेनाचार्य ने सोचा, 'मेरे स्वर्गगमन से इन्हे कष्ट न हो।' उन्होने दोनो मुनियो को श्रुत की महा उपसम्पदा प्रदान कर कुशलक्षेमपूर्वक उन्हे विदा किया |
आगम निधि सुरक्षित रखने का यह कार्य आचार्य धरसेन के महान् दूरदर्शी गुण को प्रकट करता है । जैन समाज के पास आज पट्खण्डागम जैसी अमूल्य कृति है उसका श्रेय आचार्य धरसेन के इस भव्य प्रयत्न को है ।
आचार्य धरसेन आचारग के पूर्ण ज्ञाता लोहाचार्य के निकटवर्ती थे । लोहाचार्य का स्वर्गवास वी० नि० ११५३ (वि० ६८३ ) मे माना जाता है | लोहाचार्य के स्वर्गगमन के समय अगागम के पूर्ण ज्ञाता आचार्य धरसेन वृद्धावस्था मे थे । प्रस्तुत प्रसग के आधार पर धृतिसम्पन्न आचार्य धरसेन वी० नि० की ७वी (वि० २) शताब्दी के विद्वान् थे ।