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२६. ध्यानयोगी आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र
आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र स्वाध्याय योग एव ध्यान योग के विशिष्ट साधक थे। वे अनुयोग व्यवस्थापक आर्यरक्षित के शिष्य थे। उनका जन्म वी०नि० ५५० (वि०८०) मे हुआ। ससार से विरक्त होकर वी० नि० ५६७ मे उन्होने मुनिदीक्षा स्वीकार की। ___आर्य दुर्वलिका पुष्यमित्र प्रवल धृतिधर एव महामेधावी सत थे। आर्यरक्षित की सार्ध नौ पूर्व की विशाल ज्ञानराशि से वे ६ पूर्वो को ग्रहण करने मे सफल सिद्ध हुए। शास्त्रो के अनवरत गुनन-मनन-परावर्तन मे दत्तचित्तता एव प्रवल ध्यान साधना के परिश्रम परिणामस्वरूप उनका शरीर सस्थान अत्यन्त कृश था। दुर्वलिका पुष्यमिन्न—यह उनका नाम कृशकाय होने के कारण सार्थक भी था।
एक बार बौद्ध भिक्षु आर्यरक्षित के पास आए । प्रभावक चरित के अनुसार वौद्ध उपासक आये थे। उन्होने बौद्ध शासन में निर्दिष्ट उच्चतम ध्यान प्रणाली की प्रशसा की और कहा, "हमारे सघ मे विशिष्ट ध्यान साधक भिक्षु है, आपके सघ मे ध्यान साधना का विकास नहीं है।" ___ आर्यरक्षित ने कहा, "जैन परम्परा मे भी ध्यान साधना का क्रम विद्यमान है।" उन्होने दुर्बलिका पुष्यमित्र को उनके सामने प्रस्तुत करते हुए बताया, "इस शिष्य के वपु दौर्बल्य का निमित्तध्यान साधना है। यह दुर्बलिका पुष्यमित्र अप्रमत्त भाव से अहर्निश ध्यान साधना मे निरत रहता है।"
वौद्ध उपासको को आर्यरक्षित के कथन पर विश्वास नहीं हुआ। उन्होने कहा, "मुनि की कृशता का कारण स्निग्धाहार का अभाव है । आपको गरिष्ठ भोजन की उपलब्धि नही होती है।"
वौद्ध उपासको की शका के समाधान मे आर्य रक्षित ने घृत पुष्यमित्र और वस्त्र पुष्यमित्र को उनके सामने प्रस्तुत किया और कहा, "इन शिष्यो को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सबधित चारो ही प्रकार की घृतलब्धि और वस्त्रलब्धि प्राप्त है। ये श्रमण लब्धियो के प्रभाव से घत और वस्त्र-सवधी सामग्री को पर्याप्त रूप से प्रस्तुत कर समग्र संघ की यथेप्सित आवश्यकता को पूरी कर सकते है।"