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कीति-निकुञ्ज आचार्य कुन्दकुन्द १५५
सून प्राभृत (सुन-पाहुड), वोध प्राभृत (बोध-पाहुड), भाव प्राभृत (भाव-पाहुड), मोक्षप्राभृत (मोक्ख-पाहुड), लिंग प्राभृत (लिंग-पाहुड), शीलाभृत (सील-पाहुड) ये आठ प्राभृत प्रमुख हैं। इनकी भापा शौरसेनी है। इनमे दर्शन, चारित्र आदि विविध विषयो का निश्चयनय की भूमिका पर सुदर विवेचन प्रस्तुत है।
समयसार, प्रवचनसार, नियमसार--यह रत्नत्रयी आचार्य कुन्दकुन्द की अत्यन्त प्रसिद्ध है। इस रत्नत्रयो मे 'समयसार आर्यावृत्त' मे गुम्फित जैन सौरसेनी भाषा का सर्वोत्कृष्ट परमागम है । जीवादि नव तत्त्वो का वोध, रत्नत्रयी की आराधना तथा निचयनय की अवगति मे व्यवहारनय की उपयोगिता पर सुदर विवेचन प्रदान करता हुआ यह अथ कुन्दकुन्द को समग्र कृतियो मे शीर्षस्थानीय है।
प्रवचन सार मे जिनवाणी का नवनीत और नियमसार मे परमात्म-भाव का सम्यक् प्रतिपादन तथा शाश्वत मुखप्राप्ति हेतु विविध नियमो का निर्देश है।
वैदिक दर्शन मे जो आदराम्पद स्थान उपनिषद्, ब्राह्मणसूत्र और गीता को प्राप्त हुआ है वही स्थान दिगम्बर ममाज मे इस ग्लनयी को है।
पचास्तिकाय सग्रह भी उनकी मौलिक रचना है। इसमे जैन दर्शनसम्मत द्रव्य विभाग की मुस्पष्ट और सुसम्बद्ध व्याख्या है। सप्तभगी का स्पष्ट उल्लेख भी सर्वप्रथम इसी नथ मे हुआ है। ___ आचार्य कुन्दकुन्द की समग्र रचनाए प्राकृत भाषा मे पद्यात्मक है और उनकी रचना के प्रत्येक श्लोक में दिव्य ध्वनि का मदेश माना गया है । दिगम्बर अभिमत से सातवें गुणस्थान मे झूलते हुए महामुनि के आत्मानुभव से ये गाथाए प्रकट हुई है। इसीलिए कुन्दकुन्द को कलिकाल-सर्वज्ञ कहकर उनके प्रति महान् आदर भाव प्रकट हुआ है और उनकी वाणी को गणधर गिरा की तरह प्रामाणिक समझा गया है।
प्राकृत की तरह तमिल भापा पर भी आचार्य कुन्दकुन्द का सवल अधिकार था।
तिरुकुरल तमिल भापा की अत्युत्तम कृति है। इस कृति के कर्ता एलाचार्य थे। एलाचार्य ने ही मदुरा (दक्षिण मथुरा) मे सस्थापित तमिल भापा के सगम साहित्य केंद्र का नेतृत्व किया था। ये एलाचार्य ममवत कुन्दकुन्द ही थे । आचार्य कुन्दकुन्द दर्शन युग मे आए पर उन्होने अध्यात्म प्रासाद को दर्शन की नीवपर खडा नही किया। प्रस्तुत दर्शन को आगमिक साचे में ढाला।
दिगम्बर समाज मे आचार्य कुन्दकुन्द का बहुत ऊचा स्थान है । भगवान् महावार और गौतम के साथ उनका नाम मगल स्प मे अतिशय गौरव के साथ स्मरण किया जाता है।
मगल भगवान् वीरो, मगलम् गौतमप्रभु। मगल कुन्दकुन्दा, जैन धर्मोस्तु मगलम् ॥