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________________ विलक्षण वाग्मी आचार्य वज्र स्वामी १४६ तप - सपदा को मेरे से छीन लेना चाहते हो, यह प्रयास रेणु के बदले रत्नराशि को, तृण के बदले कल्पवृक्ष को काक के बदले कोकिला को, कुटिया के बदले प्रासाद को क्षार जल से अमृत को पा लेने जैसा है । सयम-धन की तुलना मे ये विषयभोग तुच्छ हैं, क्षुद्र है। इनसे प्राप्त क्षण-भर का सुख महान् सकट का सूचक है । यह तुम्हारी पुत्री मेरे मे अनुरक्त है । छाया की भाति मेरा अनुगमन करना चाहती है, उसकी चाह की सर्व सुदर राह यह है मयादृत व्रतधत्ता, ज्ञानदर्शनसयुत || १४६ || ( प्रभा० चरित, पृ० ६) - ज्ञान दर्शन युक्त मेरे द्वारा आदृत इस त्यागमार्ग का अनुसरण करे । आर्य वज्र स्वामी की सहज सुमधुर उपदेशधारा से रुक्मिणी के अतर्नयन खुल पडे । वह साध्वी वनी एव श्रमणी सघ मे सम्मिलित हो गयी ।' आर्य वज्र ज्ञान के निधान थे । आचाराग सूत्र के अतर्वर्ती महा परिज्ञा नामक अध्ययन से उन्होने गगन-गामिनी विद्या का उद्धार किया। इस विद्या से मानुषोत्तर पर्वत तक निर्वाध गति से गमन करने की क्षमता आ जाती है । ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए श्रुतनिधि आर्य वज्र स्वामी ने पूर्वी भारत मे धर्म की अतिशय प्रभावना की । एक वार आर्य वज्र स्वामी का पदार्पण पूर्व से उत्तर भारत मे हुआ। वहा 'पर अति क्षयकारी दुर्भिक्ष का विकट समय उपस्थित हुआ । धरा पर क्षुधा से आर्त्त लोग आकुल व्याकुल हो उठे । कालजनित सकट से घिर जाने पर शय्यातर सहित सम्पूर्ण सघ को पट पर बैठाकर गगन - गामिनी विद्या के द्वारा आकाश मार्ग से उडते हुए वज्र स्वामी उत्तर भारत से महापुरी नगरी मे पहुचे थे । वहा पर भी राजकीय सकट उपस्थित होने पर पर्युषण पर्व के मनाने मे सुविधा न मिल सकी अत वे आकाश मार्ग से पुन सघ को माहेश्वरी उद्यान मे ले गए। इस समय उनकी इस चामत्कारिक विद्या से प्रभावित होकर सहस्रो जैनेतर व्यक्तियो ने वहा जैन धर्म स्वीकार किया । महानिशीथ सूत्र के तृतीय अध्ययन मे चर्चित विपयानुसार वज्र स्वामी के न्युग मे पचमगल रूप नमस्कार महामत का सूत्रो के साथ सयोजन हुआ । उसके 'पहले 'पचमगल महाश्रुत' नामक यह एक स्वतन ग्रथ था और उसके व्याख्या ग्रथ भी पृथक थे । आर्य वज्र स्वामी से सबंधित दक्षिणाचल की घटना विस्मयकारक है । एक बार वे यथोचित समय पर औषध लेना भूल गये थे । उन्हे अपनी स्मृति की क्षीणता पर आयुष्य की अल्पता का भान हुआ । इस समय उनके ज्ञानदर्पण मे भाव अत्यन्त भीपण दुष्काल के सकेत भी झलक रहे थे । श्रमण सघ को दुष्काल से बचाने के लिए वज्र स्वामी ने पाच सौ श्रमणो सहित वज्रसेन को सोपारक देश
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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