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२०. क्रान्ति-चरण आचार्य कालक (द्वितीय)
द्वितीय कालकाचार्य महान क्रान्तिकारी थे। वे धारा नगरी के वैरसिंह राजा के पुत्र थे। उनकी माता का नाम सुरसुन्दरी था और वहिन का नाम सरस्वती । सरस्वती अत्यन्त रूपवती कन्या थी। अश्वारूढ राजकुमार मन्त्री के साथ एक दिन नगर के बहिर्भूभाग मे इधर-उधर परिभ्रमण करता हुआ क्रीडारत था। वहा उसने गुणाकर मुनि को देखा, प्रवचन सुना। धनरव गम्भीर गिरा के श्रवण से परम प्रमोद को प्राप्त कालक कुमार ससार से विरक्त हो गया। दीक्षा लेने की भावना जागृत हुई। इस भावना का प्रभाव बहिन सरस्वती पर भी हुआ। दोनो भाई-बहिन मुनि गुणाकर के पास दीक्षित हो गए।
कालक कुमार कालक मुनि बन गए। कालक मुनि प्रतिभासम्पन्न युवक थे। अल्पसमय मे शास्त्रो के पारगामी विद्वान् बने। उनके गुरु ने उन्हे योग्य समझकर आचार्य पद से विभूषित किया।
एक वार ससघ आचार्य कालक का पदार्पण उज्जयिनी में हुआ। उस समय उज्जयिनी का शामक गर्दभिल्ल था। वह आचार्य कालक की भगिनी साध्वी सरस्वती के अनुपम रूप-सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो गया। राजा का आदेश पा राजपुरुषो ने करुण स्वर से क्रन्दन करती 'हा ! रक्ष, हा ! रक्ष, भ्रात ।' कहकर सहोदर आचार्य कालक को स्मरती, कलपती-विलपती साध्वी सरस्वती का अपहरण कर लिया।
आचार्य कालक का प्रस्तुत घटना से उत्तेजित हो जाना सभव था। वे राजसभा में पहुचे एव राजा गर्दभिल्ल के सम्मुख उपस्थित होकर बोले-"फलो की रक्षा के लिए बाड का निर्माण होता है। बाड स्वय ही फल को खाने लगे तो फलो की रक्षा कैसे हो सकती है ? सरक्षक ही सर्वस्व का अपरण करने लगे तो दुख दर्द की बात किसके सामने कही जा सकती है ?"
"राजन् । आप समग्र वर्गों के एव धार्मिक समाज के रक्षक है । आपके द्वारा एक साध्वी के व्रतभग की वात उचित नहीं है।"
माचार्य कालक ने यह बात सयत स्वरो मे एव शालीन शब्दो मे कही थी, किन्तु नृपाधम पर इसका कोई प्रभाव नही हुआ। मन्त्रीसहित पौर जनो ने भी