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________________ ६६ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य गुरुतर निज्जरकारी, न सपय जइवि अस्थि जिणकप्पो।' मह तह वि तदभासो पणासए पुन्य पावाइ ।।३।। (उपदेशमाला, विशेप वृत्ति, पन क ३६६), ६ विहिया सुयत्यपरमत्यवित्थरे थिरमई मए सीसा । मह गच्छसारणाईविसारओ मत्थि य सुहत्यी ॥४॥ (उपदेशमाला, विशेप वृत्ति, पन्नाक ३६६) ७ इय चिंतिऊण परिवज्जिऊण, गणगच्छ पालणुच्छाह । विहरेइ तस्स निस्साए, सायर वण-मसाणेसु ॥६॥ पुरनगरगाम आराम-आसमाई सुमुक्क पडिवधो । उवसग्गवग्गससग्ग-निप्पकपो अपको य॥७॥ (उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पत्राक ३६९), अह एगया सुहत्थी, कहेइ सकुडुवसेट्ठिणो धम्म । गेहगणमि पत्तो, महागिरी विहरमाणो तो ॥१२॥ सहसा सुहत्थिणा सो, दट्ट अन्भुट्टिो सबहुमाण । पणमिय पुच्छइ सेट्ठी, भते । तुम्हवि किमत्यि गुरु ॥१३॥ (उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पत्राक ३७०), घरजणमेव जइ एइ, एरिसो महासाहू । तो पडिलाभेयव्वो, उज्झिय भिक्खाछल काउ ॥१७॥ सुपवित्तपत्तखेत्तमि, खित्तमप्पपि बीयमिव समए । अइबहुफारफलेहि, फलेह ता देयमेयस्स ॥१८॥ (उपदेशमाला, विशेप वृत्ति, पनाक ३७०) मह जे दिन्ना मड्डाए, लड्डुमा छड्डिया मया तेऽमी । परिवज्जियाइ खज्जाइ, अज्ज कज्ज न एएहिं ॥२१॥ पइदिवस खीरिए खज्जतीए इमाए खद्धामि । अलमत्यु मज्झ घयखडपुन्नघयपुन्नपत्तेण ॥२२॥ (उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पनाक ३७०), ११ इय पेक्खतोऽपुन्ध, सव्व चेट्ठ स चितइ किमेय । उवोग दवाइसु, दितो जाणेइ जमसुद्ध ॥२३॥ अहमिह नाओ नण, अनायचरिया तओन नित्थरिया । इय स नियत्तो तत्तो, पत्तो य वणे अमत्तट्ठी ॥२४॥ । (उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पत्राक ३७०) १२ अन्भुट्ठाण बहुमाणमायर तारिस कुणतेण। तइ तइया विहियाणे सणाहि तभत्तिजणणाओ ॥२६॥ (उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पनाक ३७०) १३ थेस्स ण अज्जमहागिरिस्स एलावच्छसगोत्तस्स इमे अट्ट थेरा अतेवासी तजहा-थेरे उत्तरे, थेरे बलिस्सहे, थेरे घणड्डे, येरे सिरिड्ड, थेरे कोडिन्ने, थेरे नागे, थेरे नागमित्ते, थेरे छलूए रोहगुत्ते कोसिस गुत्तेण। - (कल्पसूत्र स्थविरावली, सूत्र २०६) स० पुण्यविजयजी १४ गोदासगणे, उत्तरवलिस्सहगणे, उद्देहगणे चारणगणे, उद्दवाइयगणे, विस्सवाइयगणे,
SR No.010228
Book TitleJain Dharm ke Prabhavak Acharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanghmitrashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1979
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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