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सद्गुण-रत्न-महोदधि आचार्य आर्य महागिरि ६३ गरिमामय दायित्व आचार्य सुहस्ती के कन्धो पर आया था, पर प्रीतिवश आर्य महागिरि एव आर्य सुहस्ती दोनो एकसाय विहरण करते थे।
आर्य महागिरि महान् योग्य भाचार्य थे। उन्होने अनेक मुनियो को आगमवाचना प्रदान की। आचार्य सुहस्ती जैसे महान् प्रभावक आचार्य भी उनके विद्यार्थी शिष्य समूह मे एक थे।
उग्र तपस्वी आर्य महागिरि के महान् उपकार के प्रति आर्य सुहस्ती आजीवन कृतज्ञ रहे एव उनको गुरु तुल्य सम्मान प्रदान किया था।
गुरुगच्छ धूरा धारण धौरेय, धीर,गम्भीर आर्य महागिरि ने एक दिन नोचा, गुरुतर आत्म विशुद्धि कारक जिनकल्प तप वर्तमान में उच्छिन्न है, पर तत्सम तप भी पूर्व सचित कमों का विनाश कर सकता है। मेरे स्थिरमति अनेक शिप्य सूत्रार्थ के ज्ञाता हो चुके हैं। मैं अपने इस दायित्व से कृतकृत्य है । गच्छ की प्रतिपालना करने मे सुहस्ती सुदक्ष है। गण-चिन्ता से मुझे मुक्त करने में वह समर्थ है । अत. इम गुरुतर दायित्व से निवृत्त एव गण से सम्बन्धित रहते हुए आत्महितार्थ विशिष्ट तप मे स्व को नियोजित फर मैं महान् फन का भागी वनू यह मेरे लिए कल्याणकारक मार्ग है। __महा सकल्पी.अन्तर्मुखी आचार्य महागिरि की चिन्तनधारा दृढ निश्चय मे बदली। सघ-सचालन का भार आर्य सुहस्ती को सभलाकर वे जिनकल्प तुल्य साधना में प्रवृत्त हुए। भयावह उपसर्गों में निष्प्रनाम्प, नगर, ग्राम, आराम आदि के प्रतिवन्ध से मुक्त बने एव श्मशान भूमिकाओ मे गण निश्रित विहरण करने लगे ।
जिancund 101 दिन भिक्षाचरी मे आर्य महागिरि विशेष अभिग्रही थे। वे प्रक्षेप योग्य भोजन ही ग्रहण करते थे। 152131हीदि
पाटलिपुत्र की घटना है-आयं महागिरि वमुभूति श्रेष्ठी के घर आहारार्थ गए । वहा आर्य सुहस्ती पहले से ही विद्यमान थे। श्रेष्ठी वसुभूति की विशेप प्रार्थना से वे उनके परिवार को जैन धर्म का वोध देने आए थे। सपरिवार वसुभूति आचार्य सुहस्ती के पावन चरणो मे बैठकर प्रवचन सुन रहा था । आर्य महागिरि के आगमन पर आर्य सुहस्ती ने उठकर वदन किया । आर्य महागिरि के प्रति आर्य सुहस्ती का यह सम्मान-भाव देखकर श्रेष्ठी वसुभूति के हृदय में आश्चर्य मिश्रित जिज्ञासा-जगी । आचार्य महागिरि के लोट जाने के बाद श्रमणोपासक श्रेष्ठी वसुभूति ने आर्य सुहम्ती से पूछा-"भगवन् । आप श्रुतमम्पन्न महाप्रभावी आचार्य है । आपके भी कोई गुरु है ? निगर्वी भाव से सुहरती ने उत्तर दिया-'ममैते गुरुव" ये मेरे गुरु है। महान् साधक, विशिष्ट तपस्वी एव' दृढ अभिग्रही हैं । अन्त, प्रान्त, नीरस, प्रक्षेप योग्य भिक्षा को ग्रहण करते है । प्रतिज्ञानुसार भोजन न मिलने पर तपकर्म मे प्रवृत्त हो जाते है।"
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