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८४ जैन धर्म के प्रभावक आचार्य
भागीदार नही बनोगे ।"
राजभय से आतंकित पिता के सामने श्रीयक को यह कठोर आदेश अन्यमनस्क भाव से भी स्वीकार करना पडा ।
पिता-पुत्र दोनो राजसभा मे उपस्थित हुए। राजनीति- कुशल शकटाल नतमस्तक मुद्रा मे राजा नन्द को प्रणाम करने झुका । बुद्धिमान श्रीयक ने पिता के नमन करने योग्य शीर्प को शस्त्र प्रहार द्वारा धड से अलग कर दिया |
इस घटना ने एक ही क्षण मे राजा नन्द के विचारो मे उथल पुथल मचा दी । श्रीयक की ओर रक्ताभ नयनो से झाकते हुए राजा नन्द ने कहा - " वत्स ! यह क्या किया ?" श्रीयक निर्भीक स्वरो मे वोला
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जो तुम्ह पडिकूलो, तेण पिउणा वि नत्थि मे कज्ज ॥ ४३ ॥
( उपदेशमाला, विशेष वृत्ति, पृष्ठ २३६ ) - राजन् ' आपकी दृष्टि मे जो राजद्रोही सिद्ध हो जाता है वह भले पिता ही घयो न हो नन्द का अमात्य परिवार उसे सहन नही कर सकता ।
श्रीक की राज परिवार के प्रति यह आस्था देखकर राजा नन्द के सामने महामात्य शकटाल की अटूट राजभक्ति का चित्र उभर आया। राज्य की सुरक्षा की गई उसकी सेवाए मस्तिष्क मे सजीव होकर तैरने लगी । अतीत को वर्तमान मे परिवर्तित नही किया जा सकता । सुदक्ष अमात्य को खो दिया इससे राजा का मन भारी था । अमात्य ने प्राणो का उत्सर्ग कर अपने यश को शिखर पर चढा दिया । महामात्य शकटाल का राजसम्मान के साथ दाहसस्कार हुआ ।
महामती शकटाल की और्ध्व दैहिक क्रिया सम्पन्न करने के बाद नरेश्वर नन्द ने श्रीयक से कहा- 1 - 'वत्स । सर्व व्यापार सहित मत्री मुद्रा को ग्रहण करो ।"
श्री नम्र होकर बोला- "मगधेश । मेरे पितृ तुल्य ज्येष्ठ भ्राता स्थूलभद्र कोशा गणिका के यहा निर्विघ्न निवास कर रहे है । भोगो को भोगते हुए उन्हे वहा बारह वर्ष व्यतीत हो चुके है ।" वे वास्तव मे ही इस पद के योग्य है ।"
राजा नन्द का निमन्त्रण स्थूलभद्र के पास पहुचा । राजाज्ञा प्राप्त स्थूलभद्र ने बारह वर्ष बाद पहली बार कोशा के प्रासाद से बाहर पैर रखा । वे मस्त चाल से चलते हुए राजानन्द के सामने उपस्थित हुए । उनका तेजोद्दीप्त भाल सूर्य के प्रकाश को भी प्रतिहत कर रहा था। उनकी मनोरम मुद्रा सबकी दृष्टि को अपनी ओर खीच रही थी। राजा नन्द के द्वारा महामात्य पद को अलकृत करने का उन्हे निर्देश मिला | गौरवपूर्ण यह पद काटो का मुकुट होता है । विवेकस पन्न स्थूलभद्र ने साम्राज्य के व्यामोह मे विमूढ होकर बिना सोचे-समझे इस पद के दायित्व को स्वीकृत कर लेने की भूल नहीं की । के राजा द्वारा प्राप्त निर्देश पर विचार-विमर्श करने के लिए अशोक वाटिका मे चले गए। वृक्ष के नीचे बैठकर - चिन्तन के महासागर मे गहरी डुबकिया लेने लगे, सोचा- 'उच्च से उच्च पद