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________________ १८४ " फिरतां रहेवुं, नही रहेवुं एकण गाम हो ॥ मु० ॥ च० ॥ २ ॥ गावां नगरे गमन करो, सेंधे ससेंधे देश हो ॥ मु० ॥ नरनारी हांसी करे, देखी साधुजीरो बेश हो ॥ मु० ॥ च० ॥ ३ ॥ कोइक देशी गालीया, कोइक देवे मार हो ॥ मु० ॥ कोइक लोक द्वेषी थकां कूत्ता देवे लगाय हो ॥ मु० ॥ च० ॥ ४ ॥ मारग नूली बजाने पडया, चगे कांटा ने शूल हो ॥ सु० ॥ भूख तृषाना पीडिया, काया विसे मूल हो ॥ मु०॥ च०॥५॥ थानक जगतं मिले नही, रेहेवाने एक रात हो ॥ मु० ॥ सम जावें रहे साधुजी, नही करे क्रो ध तिलमात हो ॥ मु० ॥ च० ॥ ३ ॥ नगवंत श्रीमहावीरजी. सह्या परिसह भरपूर हो ॥ मु०॥ ष्प्रचारंग कल्पसूत्रमध्यें, अरिहंत क्षमाना शूर हो ॥ मु० ॥ च० ॥ ७ ॥ गावा नगरा विचर तां, दीपायो जिनधर्म हो ॥ मु० ॥ कर्मखपाया प्रापणा, पाम्यावे सुख परम हो ॥ मु० ॥ च० ॥ ८ ॥ दुहा || एक ठाम बेठण तणो, कठण परि सह ताम ॥ ख्याल तमासा जोवा किरे नही, सारे वंबित काम ॥ १ ॥ अथ निषिध परिसह ॥ १०
SR No.010224
Book TitleJain Dharm Gyan Prakashak Pustak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNana Dadaji Gund
PublisherNana Dadaji Gund
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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