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दोनों का विवाह हो सकता है । इसलिये सुधारकों के लिये "विवाह योग्य स्त्री अर्थ" ही प्रकरण-सङ्गत है । श्रक्षेपक के समान सुधारक लोग तो जैनधर्म को तिलाञ्जलि दे नहीं सकते ।
आक्षेप ( ) - साहसगति के मुँह से सुतारा को कन्या कहलाकर कवि ने साहित्य की छटा दिखलाई है। उसकी दृष्टि में वह कन्या समान ही थी । साहसगति के भावों में सुतारा की कामवासना सूचित करने के लिये कवि ने नारी भार्या श्रादि न लिखकर कन्या शब्द लिखा । यदि ऐसा भाव न होता तो कन्या न लिखकर ग्राडा लिख देता ।
समाधान — कविने ग्राडा इसलिये न लिखा कि सुतारा तब राँड नहीं हुई थी । साहसगति सुग्रीवसे लड़कर या उसे मार कर सुतारा नहीं छीनना चाहता था- वह धोखा देकर छीनना चाहता था । इसीलिये उसने रूप-परिवर्तिनी विद्या सिद्ध की । श्रावश्यकता होने पर लड़ना पड़ा यह बात दूसरी है। ख़ैर ! जब तक सुग्रीव मरा नहीं तब तक सुतारा को रॉड कैसे कहा जा सकता था ।
दध्यौचेतसि कामाग्निदग्धों निःसार मानसः । केनोपायेतां कन्यांलप्स्ये निरृतिदायिनी ॥ १०॥१४॥
यह श्लोक हमने यह सिद्ध करने के लिये उद्धत किया था कि कन्याशब्द का 'स्त्री सामान्य' अर्थ भी है और इसके उदाहरण साहित्य में मिलते हैं । श्रक्षेपक ने हमारे दोनों श्रर्थी को स्वीकार कर लिया है; तब समझमें नहीं श्राता कि वह उस अर्थ के समर्थन को क्यों अस्वीकार करता है । यह श्लोक विधवाविवाह के समर्थन के लिये नहीं दिया है । सिर्फ़ कन्याशब्द के अर्थ का खुलासा करने के लिये दिया है, जो अर्थ आक्षेपक को मान्य है ।
नारी, भार्या न लिखकर कन्या लिखने से कामवासना