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________________ तीव्रता मन्दता की दृष्टि से सकषाय प्रवृत्ति छः भागों में बाँटी गई है, जिन्हें कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्र शब्दों से कहते हैं। इनमें सबसे ज्यादा तीव्र कृष्ण लंश्या है । लेकिन कृष्ण लेश्या के हो जाने पर भी सम्यक्त्व का नाश नहीं होता। इसीलिये गोम्मटसार में लिखा है ___ "अयदोन्ति छ लेस्साओ" अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि जीव तक छहों लेश्याएँ होती हैं। अगर विधवाविवाह में कृष्ण लेश्यारूप परिणाम भी होते तो भी सम्यक्त्व का नाश नहीं हो सकता था। फिर तो विधवाविवाह में शुभ लेश्या रहती है, तब सम्यक्तत्व का नाश कैसे होगा ? आक्षेपक ने परस्त्रीसेवन अनन्तानुबन्धी के उदय से बतलाया है । यह बात भी अनुचित है । मैं परस्त्रीसेवन का समर्थन नहीं करता, किन्तु श्राक्ष पक की शास्त्रीय नास मझी को दूर कर देना उचित है । परस्त्री सेवन अप्रत्याख्यानावरण कपायके उदयसे होता है। क्योंकि अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशवत-अणुव्रत की घातक है और अणुव्रत के घात होने पर ही परस्त्री सवन होता है। प्राक्षेपक को यह जानना चाहिये कि अणुव्रती, पांच पापों का त्यागी होता है न कि अविरत सम्यग्दृष्टि। खैर ! मुझे व्यभिचार की पुष्टि नहीं करना है । व्यभिचार और विधवाविवाह में बड़ा अन्तर है। व्यभिचार अप्रत्याख्यानावरण और विधवा विवाह प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होता है। ऐसी हालत में विधवा * मेरे पहिले लेख में इस जगह अप्रत्याख्यानावरण छप गया है। पाठक सुधारकर प्रत्याख्यानावरण कर लें। -लेखक
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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