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________________ प्रादि शब्दों की भरमार की है। ऐसे शब्दों का भी उत्तर न दिया जायगा । विद्यानन्द जी ने मेरे लेख के उद्धरण अधरे अधूरे लिये हैं और कहीं कहीं अत्यावश्यक उद्धरण छोड़ दिया है। इस विषय में तो मैं पं० श्रीलाल जी को धन्यवाद दगा जिन्होंने मेरे पूरे उद्धरण लेने में उदारता दिखलाई । उद्धरण श्रधग होने पर भी ऐसा अवश्य होना चाहिये जिसमे पाठक उलटा न समभले। दोनों लेख लम्बे लम्बे हैं। उनमें बहुत मी ऐमी बाने भी हैं जिनका विधवाविवाह के प्रश्न से सम्बन्ध नहीं है, परन्तु दोनों महाशयों के सत्ताधार्थ में उन बाता पर भी विचार करूंगा । इमसे पाठकों को भी इतना लाभ ज़रूर होगा कि वे जैनधर्म की अन्यान्य बातों से भी परिचित हो जावेगे । मेग विश्वास है कि वह परिचय अनावश्यक न होगा। चम्पतगयजी के ३१ प्रश्नों के उत्तर में जो कुछ मैंने लिखा था उसके खगडन में दोनों महाशयोंने जो कुछ लिखा है, उमका सार मेंने निकाल लिया है। नीचे उनके एक एक प्राक्षे का अलग अलग समाधान किया जाता है। पहिन्ते श्रीलालजी के प्राक्षेपो का, फिर विद्यानन्दजी के श्राक्षेण का समाधान किया गया है ! में विरोधियों से निवेदन करता हूँ या चैलेज देता हूँ कि उनसे जितना भी श्राक्षेप करते बने, खुशीसे करें। मैं उत्तर देने को तैयार हूँ। पहला प्रश्न आक्षेप (अ)- सम्यक्त्व की घातक सात प्रकृतियों में चार अनन्तानुबन्धी कपायें भी शामिल हैं। विधवाविवाह के लिये जितनी तीन कषाय की ज़रूरत है वह अनन्नानुबन्धी के उदय के बिना नहीं हो सकती। जैसे परस्त्रीसेवन अनन्तानुबंधी
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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