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इससे ज्ञात होता है कि विवाह से दो परपुरुष व परस्त्री, म्वपुरुष व स्वास्त्री होजाते हैं। यदि वे विवाह से पहिले विषय मयन करें तो यह, उनका व्यमिवार होगाः परन्तु यदि वे ही विवाह के पश्चात विषय मेवन करें तो यह, उनका व्यभिचार नहीं होगा। इस तरह विवाह, व्यभिचार दोष को अपहरगा करने का 'अव्यर्थ साधन है। ___जी कुमारी आज परस्त्री है, और जो पुरुष आज परपुरुष है, व ही विवाह होजाने पर स्वपुरुष व स्वस्त्री होजात हैं, नब जो विधवा अाज परस्त्री है और जो पुरुष आज परपुरुष है. वे विवाह के बाद स्वरूप व स्वस्त्री क्यों नहीं हो सकते? जबकि विवाह में व्यभिवार दोषक आहरण की शक्ति है और कुमारियां के विश्यमें इसका प्रयोग किया जाता है, तो इसका प्रयोग विधवाओं क विषय में क्यों नहीं किया जा सकता ? और भी देखिए -
पूज्य जैनाचार्य श्री स्वामी अकलंक देव ने 'गजवार्तिक' में विवाह का लक्षण इस प्रकार बतलाया है:
"सद्वेद्य चारित्र महोदयाद्विवहनं विवाह"
अर्थात --"मानावेदनीय और चारिख मोह के उदय से स्त्री पुरुष का एक दमरे को स्वीकार करना विवाह है"
विवाह का हो जाना माता वेदनीय का फल है; क्योंकि इमम असन्तोषी को संताप हो जाता है। परन्तु विवाह करने की तीव्र इच्छा चारित्र माह के उदय से होती है । वंद नाम नोकषाय, काम भावना का प्रेरक है। इस कषाय के उदय का जोर प्रत्येक स्त्री पुरुष की हुश्रा करता है । बस जिस प्रकार • विधवा' शब्द का अर्थ है 'विगतो धवो यस्यः-अर्थात जिसका धव (पुरुष) दृर होगया (मर गयाहो।