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रत्न पं० दरवारीलाल जी "विधवा विवाह" पर प्रकाश डालने रहते हैं; परन्तु फिर भी जैनसमाजमें "विधवा विवाह " के विरोधी लोग मौजूद हैं, इस बातका मुझे अत्यन्त श्राश्वर्य
ग्वेद है। निमित्त तां प्रथल हैं परन्तु ज्ञानावर्गीय कर्म के पर्दे ने उनकी ज्ञान-शक्ति को इतना हीन बना दिया है कि वे उनसे कुछ लाभ नहीं उठा सके हैं! खेद ! महा वेद !!
"विधवा विवाह" के विरोधियों को इसका नाम मात्र भयंकर है। उनके लिये "विधवाविवाह" ठीक ऐसा ही है जैसा कि गीदड़ के लिये सिंह। उन्ही में के एक प्रतिष्ठित महाशय "विधवा विवाह" पर अपने लिखित व्याख्यान के प्रारम्भ में fafter शब्द कहते हैं, जिनसे पाठक अनुमान कर सकते है कि आपको "विधवा विवाह" कितना भयंकर है:
"सजनो ! श्राज जिस विषय में सभापति महोदय ने मुझको व्याख्यान देने की आज्ञा दी है उस शब्द के नाम मात्र मुझे अत्यन्त ग्लानि और पाप होने की सम्भावना हैं, परन्तु श्राज्ञा का उलंघन मेरी शक्ति से बाहर है.... ········ | "
और कहते हैं इस "विधवाविवाह" के नाम मात्र से पाप होने की सम्भावना है" बाहरी बुद्धिमत्ता (?) तेरी इस अपूर्व गुढ़ फिलासफी / philosophy) को समझने में बड़े बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि भी बंकाम हैं। पाठक आपकी इस अद्भुत फिलासफी पर विचार तो करें ।
मेरी राय में "विधवा विवाह" पाप नहीं है । इससे धर्म में कोई रुकावट व हानि नहीं हो सकती, और वर्तमान अवस्था को देखते हुए तो यह 'अत्यन्त से अधिक आवश्यक है। मैं इस लेख में "विधवा विवाह" पर ही विचार करूँगा । मैं पाठकों को विश्वास दिलाता हूँ कि यह लेख उच्छृंखलता से या किसी समाज व दल को नीचा दिखाने के लिये नहीं