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( २२८ ) हिना को छोड़ कर शंष मर में व्यभिचार है चाहे वह कुमारी हो सधवा हो या विधवा हो' । श्रीलालजी के इम वक्तव्य का हम पूर्ण समर्थन करते हैं और इमीसं विधवा-विवाह का ममर्थन भी हो जाता है । जिस प्रकार कुमारी के साथ रमण करना व्यभिचार है, किन्तु कुमारी को विवाहिता बना कर रमण करना व्यभिचार नहीं है। उसी प्रकार विधवा के साथ रमण करना व्यभिचार है परन्तु विधवा के साथ विवाह कर लेने पर उसके साथ ग्मण करना व्यभिचार नहीं है । विधवा के साथ विवाह करने पर उसे अविवाहिता नहीं कहा जा सकता, जिसमे यहाँ व्यभिचार माना जावे। इस तरह श्रीलाल जी के वक्तव्य के अनुसार भी विधवा-विवाह उचित ठहरता है।
प्राक्षेप (छ)-महर्षिगरण पाठ विवाह बताने वालों की हम माने या नीमी प्रकार का ये विधवा-विवाह बनाने वाले तुम्हारी माने।
समाधान-विधवा विवाह नघमा भेद नहीं है किन्तु जिस प्रकार कुमारीविवाह के पाठ भेद हैं उसी प्रकार विधवा-विवाह के भी पाठ भेद है। इस विषय में पहिले विस्तार से लिखा जा चुका है।
आक्षेप ( ज )-प्राचीन समय में लोग विधवा होना अच्छा नहीं समझते थे । यदि पहिले समय में विधवाविवाह का ग्घिाज होता तो फिर विधवा शब्द से इतने डरने की कोई श्रावश्यकता नहीं थी। (विद्यानन्द )
समाधान-प्राज मुसलमानों में ईसाइयों में या अन्य किसी समुदाय में, जिसमें कि विधवाविवाह होता है, क्या विधवा होना अच्छा समझा जाता है ? यदि नहीं तो क्या वहाँ भी विधवा विवाह का प्रभाव सिद्ध हो जायगा? आजकल या