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( १७६ ) सामान्य प्रारम्भ के अतिरिक्त जितना प्रारम्भ होता था उससे बचने के लिये उहिष्टत्याग का विधान है। इस ज़गसे प्रारम्भ के बचाने के लिये अगर श्रावकों को घर बटोर कर मुनियों के पीछे सलना पड़े और नये नये स्थानों में नये तरह से नया प्रारम्भ करना पड़े तो यह कीडी की रक्षा के नाम पर हाथी की हत्या करना है । दर्जनों कुटुम्बी परदेश में जाकर मुनियों के लिये इतना ज्यादा प्रारम्भ करें तो इस कार्य को कोई महा. मद मियादृष्टि ही पुगय ममझ सकता है । इसकी अपेक्षा नो मनि कहलाने वाला व्यक्ति हाथ से पकाके वाले तो ही अच्छा है।
आक्षेप (ख)-प्रछतों के हाथ लगने से जल अपेय हो यह अन्धेर नहीं है। ........ .. "उपदेश शक्यानुष्ठान का ही होता है । गहुँ बाध है और खात अखाद्य ............ जिनके हृदय में भी चमार ब्राह्मण सब एक ही उस मा की दृष्टि में सब सन्धेर ही रहेगा । (श्रीलाल)
ममाधान--पगिडनदल की मढ़तापूर्ण मिध्यात्ववर्धक मान्यता के अनुसार शद्र के स्पर्श से जलाशय का जल भी अपय होजाता है । इसपर हमने कहा था कि जलाशयों में ना खयं शुद्रों से भी नीच जलचर रहते हैं। इसपर आक्षेपक का कहना है कि वह अशक्यानुष्ठान है । स्वैर ! जलाशयों को जल चगे के स्पर्श से बचाना अशक्यानुष्ठान सही परन्तु स्थलचर पशुओं कस्पर्श से बचाना ना शक्य है । फिर स्वलचर पशुओं संम्पर्श से जलाशयों का जल अपेय क्यों नहीं मानते ? पशुओं के स्पर्शले अपेय न मानना और मनुष्यों के स्पर्श से अपय मानना घोर धृष्टता नहीं तो क्या है ? इसका स्पष्ट कारण ना यही है कि जिनके आगे तुम जातिमद का नहा नाच कगना चाहते हो उन्हीं के विषय में अस्पृश्यता की बात निकालते हो ।