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( १७८ ) म्लेच्छ और सुदृष्टि के मोक्षगमन तथा पूज्यपाद और विषण आदि प्राचार्यों के प्रमाणों स व्यभिचारजान प्रादि भी माक्ष जा सकते है यह बात लिखी जा चुकी है ।
इक्कीसवाँ प्रश्न । अलासच्या हाने से मुनियों का आहार में कठिनाई होनी है। यद्यपि अाजकल मुनि नहीं है, फिर भी अगर मुनि हो तो व मब जगह विहार नहीं कर सकते क्योंकि अनेक प्रान्ती मे जेनी है ही नहीं और जहां हे भी वहां प्रायः नगर्ग में ही है। मनियों में अगर इतनी शक्ति हो कि वे जहाँ चाहे जाकर नये जैनी बनाव और समाज के ऊपर प्रभाव डालकर उन नये जैनियों को समाज का अजम्वीकार करावे ना यह समस्या हल हो सकती है। परन्तु हर जगह तुरन्त ही नये जैनी बनाना और उहित्यागपूर्वक उनसे आहार लेना मश्किल है, इमलिय जैन समाज का बहुसंख्यक हाने की मावश्यकता है। विधवाविवाह मंशावृद्धि में कारण है, इमलिय विधवाविवाह मुनिधर्म के अस्तित्व के लिये भी अन्यतम साधन है।
आक्षेप ( क )-जब मार्ग में जैन जनता नहीं तब जो भक्त गृहस्थ अपना काम धन्धा छोड़कर मुनिसेवामें लगे उम क समान दूसग पुगय नहीं। मुनियों को हाथ से गटी बनाकर खाने की सलाह देना धृष्टता हे।
समाधान-मनियों को ऐसी सलाह देना धृष्टता होगी परन्तु दोगियों की ऐसी मलाह देना परम पुराय है । जेनशास्त्रों क अनुसार उहिष्टत्याग के बिना कोई मनि नही हो सकता
और उहष्टत्याग इमलिये कराया जाता है कि वे प्रारम्भजन्य हिमा के पाप से बचें। निमन्त्रण करने में विशेषारम्भ करना पड़ना है । उहिपत्याग में सामान्य प्रारम्भ ही रहता है