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नहीं हो सकता इससे सिद्ध है कि विधवाविवाह का प्रचार जरूर होकर रहेगा । अथवा जिन जातियों में विधवाविवाह का रिवाज है वे ही जातियाँ अन्त तक रहेगी। रही चिन्ता की बान सो जो पुरुष है उसे तो पुरुषार्थ पर ही नज़र र साना चाहिये। कोरी भविनम्यता के भरोसे पर बैठकर प्रयत्न से उदासीन न होना चाहिये। तीर्थकर अवश्य मोक्षगामी होने हैं फिर भी उन्हें मोक्ष के लिये प्रयत्न करना पड़ता है। इसी तरह जैनधर्म पंचमकान के अन्त तक अवश्य रहेगा परन्तु उसे तब तक रहने के लिये विधवाविवाह का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये।
यह छूनाछूतविचार का प्रकरण नहीं है । इसका विवे. चन कुछ हो चुका है। बहुत कुछ आगे भी होगा।
आक्षेप ( 3 )-विधवाविवाह से तो बचे ग्वचे जैनी नास्तिक हो जायेंगे, कौड़ी के तीन तीन बिकेंगे । जैनधर्म यह नहीं चाहता कि उसमें संन्यावृद्धि के नाम पर कड़ाकचरा भर जाय । (विद्यानन्द )
समाधान-आक्षेपक कड़ाकचग का विरोधी है परन्तु विधवाविवाह वालों को कड़ाकचरा तभी कहा जामकता है जब विधवाविवाह धर्मविरुद्ध सिद्ध हो । पूर्वोक्त प्रमाणों से विधवाविवाह धर्मानुकूल सिद्ध है इसलिये प्राक्षेपक की ये गालियाँ निरर्थक हैं। विधवाविवाहोत्पन्न तो व्यभिचारजान है ही नहीं, परन्तु व्यभिचारजातना से भी कोई हानि नहीं है। व्यभिचार पाप है (विधवाविवाह व्यभिचार नहीं है) व्यभिचार जानता पाप नहीं है अन्यथा रविषेणाचार्य ऐसा क्यों लिखते
चिन्हानि विटजातम्य सन्ति नांगेष कानिचित् । अनार्यमाचरन् किश्चिजायते नीचगोचरः ॥