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सिर्फ यही सिद्ध होता है कि उनमें पुरुषत्व की उन्मत्तता के साथ द्विजत्व की उन्मत्तता भी थी । " उनने पुरुषों को भी कुचला, इसलिये स्त्रियों को नहीं कुचला" यह नहीं कहा जासकता । मुसलमान आपस में भी लड़ते हैं, क्या इसलिये उनका हिन्दुओं से न लड़ना सिद्ध हो जाता है ? कहा जाता है कि "उनने दुराचारी द्विजों की भी तो निन्दा की है, इसलिये वे सिर्फ दुराचार के ही निन्दक हैं" । यदि ऐसा है तो दुराचारी शूद्रों की और दुराचारिणी स्त्रियों को ही निन्दा करना चाहिये । स्त्रीमात्र की ओर शुइ मात्र को नीचा क्यों दिखाया जाता है ? अमेरिका में अपराधी लोग दण्ड पाते है और बहुत से हब्शी नाममात्र के अपराध पर इसलिये जला दिये जाते हैं कि वे हब्शी है, तो क्या यह उचित है ? अपराधियों को दण्ड देने से क्या निरपराधियों को सताना जायज़ हो जाता है ? प्राचीन लेखकों ने अगर दुराचारियों को कुचला है तो सिर्फ इसीलिये उनका शूद्रों को और स्त्रियों को कुच लना जायज़ नही कहला सकता । यह पक्षपात पिशाच, उस समय बिलकुल नगा हो जाता है जब दुराचारी द्विज के अधिकार, सदाचारी शूद्र और सदाचारिणी महिला से ज्यादा समझे जाते हैं । दुगचारी द्विज अगर जीते बालकों को मार मारकर खाजाय तो भी उसके मुनि बनने का और मोक्ष जाने का अधिकार नहीं छिनता ( देखी पद्मपुराण सोदास की कथा ) | परन्तु शूद्र कितना भी सदाचारी क्यों न हो, उसका श्रात्मविकास कितना ही क्यों न हो गया हो वह मुनि भी नहीं बन सकता । झूठा, चोट्टा, व्यभिचारी और लुच्चा द्विज अगर भगवान् की पूजा करे तो कोई हानि नहीं, परन्तु शूद्र आरम्भत्यागी या उद्दिष्ट त्यागी ही क्यों न हो, वह जिन पूजा करने का अधिकारी