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( १०६) ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकने उनके लिये कुछ नीची श्रेणी का ( विवाह आदि का) उपदेश देते हैं। इन नोची श्रेणियों में किस ज़माने के अधिकांश मनुष्य किम श्रेणो का किस रूप में पालन कर सकते हैं इस बात का भी विचार रखा जाता है। भारतवर्ष, निब्बत और वनमान यांगर की परिस्थितियोम बड़ा फर्क है। भारतवर्ष में पक पति, अनेक पत्नियाँ रख मकना है । तिब्बत में पक पत्नी भनक पति रख सकती है। यारोप में पनि, अनेक पत्नियाँ नहीं रख सकता, न पन्नी अनेक पति रख मकती है । यागप में अगर एक पन्नी के रहने हुए कोई दूसरी पन्नी से विवाह करले ना वह जेल में भेज दिया जायगा। क्या प.मी परिस्थिति में प्राचार्य, योगपियन पुरुषों को बहुविवाहको श्राक्षा देंगे ? जैनाचार्यों की दृष्मेिं भी वहाँ का बहुविवाह अनाचार कहलायगा । परन्तु भारत के लिय पुरुषों का बहुविवाह अनिचार ही हागा। निब्बत के लिये स्त्रियों का बहुविवाह प्रति. चार होगा। नापर्य यह है कि पूर्ण ब्रह्म वय में उतर कर समाज का नैनिक माध्यम ( 11.hth) जिम श्रेणी का रहता है उसी का प्राचार्य ब्रह्मचर्याणवत कहते हैं। यही कारण है कि सामदेव और आशाघरजी ने वेश्यामवों को भी अणुवनी मान लिया है। इसमें श्राश्चय की कुछ बात नहीं है क्योकि यह नो जुदे जुदे समय और जुदे स्थानों के समाज का माध्यम है । इस विषय में इतनी बान ध्यान में रखने की है कि माध्यम चाहे जो कुछ रहा हो परन्तु उनका लक्ष्य पूर्ण ब्रह्मचर्य रहा है । इस. लिये बहुपत्नीक मनुष्य को उनने भनिचारी कहा है । देखिये सागारधर्मामृत टीका "यदा तुम्वदारसन्तष्टो विशिष्टसन्तापाभावात् अन्यत्कल परिणयति तदाऽप्यस्यायमतिचारः स्यान्" अर्थात् विशिष्ट सन्नाप न होने के कारण जो दूसरो स्त्री के साथ विवाह करता है उसको ब्रह्मचर्याणुवन में दोष लगता है।