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करना पड़ता है । व्यभिचार के लिये नहीं, किन्तु पैसों के लिये वेश्या कृत्रिम प्रेम करके किसी आदमी के साथ मायाचार करती है जबकि कुशीला विधवा अपने पाप को सुरक्षित रखने के लिये सारी समाज के साथ मायाचार करती है । अपने व्यभिचार को छुपाने के लिये ऐसी नारियाँ मुनियों की सेवा सुश्रूषा में आगे आगे रहती हैं, देव पूजा आदि के कार्यों में प्रेसर बनती हैं, तप आदि के ढोंग करती हैं जिससे लोग उन्हें धर्मात्माबाई कहें और उनका पापाचार भूले रहें । स्म
रहे कि व्याघ्र से गोमुख व्याघ्र भयानक होता है । वेश्या अगर व्याघ्री है तो कुशीला गोमुखच्याघ्री है । सम्भव है कोई स्त्री जन्मभर कुशीला न रहे। परन्तु यह भी सम्भव है कि कोई स्त्री जन्मभर वेश्या न रहे। जब तक कोई कुशीला या वेश्या है, तभी तक उसकी श्रात्मा का विचार करना है ।
आक्षेप ( ख ) - प्रश्न में मायाचार की दृष्टि से अन्तर पूछा गया है श्रतः पाप-कार्य की दृष्टि से अन्तर बतलाना प्रश्न के बाहर का विषय है । ( विद्यानन्द )
समाधान -- हमने कहा था कि, "जब हम वेश्या सेवन और परस्त्रीसेवन के पाप में अन्तर बतला सकते हैं तब दोनों के मायाचार में भी अन्तर बतला सकते हैं।" इसमें अन्य पाप से मायाचार का पता नहीं लगाया है, परन्तु अन्य पाप के समान मायाचार को भी अपने ज्ञान का विषय बतलाया है । यह भूल तो आक्षेपक ने स्वयं की है । उनने लिखा है - "व्यभिचार एक पाप-पथ है । उसपर जो जितना श्रागे बढ़ गया वह उतना ही अधिक सर्व दृष्टि से पापी एवं महामायावी है।" पाप के अन्तर से माया का अन्तर दिखला कर श्रक्षेपक स्वयं विषय के बाहर गये हैं।
आक्षेप ( ग ) - सव्यसाची ने श्रान्तरिक भावों का निर्णय