________________
( ७७ ) मानी हैं: विद्यानन्द नहीं मानते हैं। खैर, परस्त्रीसेवन में वेश्यासेवन से अधिक पाप है जबकि रखैल स्त्री के साथ सम्भोग वेश्यासेवन से छोटा पाप है। इसका कारण संक्लेश की न्यू. नता है । परस्त्रीसेवन में वेश्यासेवन की अपेक्षा इसलिये ज़्यादा संक्लेशता है कि उसमें परस्त्री के कुटुम्बियों का तथा पड़ोसियों का भय रहता है, और ज़्यादः मायाचार करना पड़ता है । वेश्यासेवन में ये दोनों बातें कम रहती हैं । खैत स्त्री में ये दोनों बातें बिलकुल नहीं रहती हैं । व्यभिचार को उन दोनों धेणियों से यह श्रेणी बहुत छोटी है, यह बात बिलकुल स्पष्ट है। इस तीसरी श्रेणीको व्यभिचार इसलिये कहा है कि ऐसी म्त्री से पैदा होने वाली सन्तान अपनी सन्तान नहीं कहलाती;
और इनका परस्पर सम्बन्ध समाज की अनुमति के बिना ही होता है और समाज की अनुमति के बिना ही छूट जाता है । . विधवाविवाह में ये दोष भी नहीं पाये जाते। इससे सन्तान अपनी कहलाती है। बिना समाज को सम्मति के न यह सम्बन्ध होता है न ट्टता है। व्यभिचार का इससे कोई ताल्लुक नहीं। विवाह के समय जैसे अन्य कुमारियाँ कन्या (दुलहिन) कहः लाती हैं, उसी प्रकार विवाह के समय विधवा भी कन्या कह. लाती है। व्यभिचार की तीन श्रेणियाँ और विधवाविवाह का उनसे बाहर रहना इतना स्पष्ट है कि विशेष कहने की ज़रूरत नहीं है । जब विधवाविवाह परस्त्रीसेवन नहीं है नब परस्त्री. सेवनको व्यभिचार मान लेनेसे व्यभिचार कैसे सिद्ध होगया ? माक्षेपक, यहाँ पर अनिग्रह में निग्रह का प्रयोग करके स्वयं निरनुयोज्यानुयोग निग्रहस्थान में गिर गया है।
प्राक्षेप (ज)-जहाँ कन्या और वर का विवाहविधि के पूर्व सम्बन्ध हो जाता है वह गांधर्व-विवाह है। इसमें कन्या के साथ प्रवीचार होता है; इसलिये व्यभिचार श्रेणी से हलका