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________________ ( ७१ ) शीतलनाथ के तीर्थ के अन्त में भूतिशर्मा के पुत्र मुण्डशालायन ने आविष्कार किया था। इससे सिद्ध है कि कन्यादान, जैनधर्म में नहीं है। शीतलनाथ म्वामी के पहिले कन्यादान का रिवाज ही नहीं था। तो क्या उसके पहिले विवाह न होता था ? न तो ऋषभदेव, भरत, जयकुमार सुलोचना आदि का विवाह न मानना पड़ेगा। कन्यादान को विवाह मानने से गान्धर्व श्रादि विवाह, विवाह न कहलायँगे। श्रीकृष्ण का रुक्मणी के साथ जो विवाह हुप्रा था उसमें कन्यादान कहाँ था ? क्या वह विवाह नाजायज़ था ? म्मरण रहे कि इसी विवाह के फलस्वरूप, रुक्मणी जी के गर्भ से तद्भवमोक्षगामी प्रद्यम्न का जन्म हुश्रा था । खेर, इस विषय में हम पहिले बहुत कुछ लिख चुके हैं । मुख्य बात यह है कि कन्यादान विवाह का लक्षण नहीं है। आक्षेप ( ग )-पुरुष भोक्ता है, स्त्री मोज्य है। पुरुष जब अनेक भाज्यों के भोगने की शक्ति रखता है तब क्यों नहीं एक भोज्य के अभाव में दूसरे भोज्य को भांगे। (श्रोलाल) समाधान-पुरुप भोक्ता है परन्तु वह भाज्य भी है। इसी प्रकार स्त्री भोज्य है परन्तु वह भोक्ती ( भोगने वाली) भी है। इसलिये भोज्य-स्त्री के अभाव में, पुरुष को अधिकार हे कि वह दूसगे भोज्य-स्त्री प्राप्त करे; इसी प्रकार भोज्यपरुष के प्रभाव में स्त्री को अधिकार है कि वह दूसरा भोज्य. परुष प्राप्त करे । शक्ति का विचार किया जाय तो परुष में जिननी स्त्रियों को भोगने की ताकत है उससे भी ज्यादः पुरुषों को भोगने की ताकत स्त्री में है।। जहां भोज्यभोजक सम्बन्ध होता है वहाँ यह बात देखी जाती है कि भोग से भोजक को सुखानुभव होता है और भोज्य को नहीं होना । स्त्री-परुष के भांग में तो दोनों को
SR No.010223
Book TitleJain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSavyasachi
PublisherJain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
Publication Year
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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