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का अतिचार सिद्ध किया है वहाँ लिखा है कि "चास्य भार्यादिना परण किश्चित्काल परिगृहीतां वेश्यां गच्छतो भंगः कथ. चिपग्दाग्त्वातम्या: । लोकनु परदारत्वारूढ़ेर्न भंगः इति भंगाभंग रूपानिचार:" | इम वाक्य पर विचार कीजिये।
जहाँ भग ही भंग है वहाँ अनाचार माना जाता है। जहाँ अभंग ही है वहाँ वत माना जाता है । जहाँ भंग और अभंग दोनों है वहाँ अनिबार माना जाता है । ऊपर के वाक्य में वेश्या-संवन को भंग और अमङ्गरूप मान कर अनिचार सिद्ध किया गया है। यहाँ देखना इतना ही है कि भङ्ग अंश क्या है और अभद अंश क्या है ? और उनमें से कोनसा अश विधवाविवाह में पाया जाता है ? ग्रन्थकार कहते हैं कि वेश्यासेवन में वन का भङ्ग इसलिये होता है कि वह दृमगे के द्वारा ग्रहण की जाती है। मतलब यह कि वेश्या के पास बहुत में पुरुष जाते हैं और सभी पैमा दे देकर उसे अपनी अपनी स्त्री बनाते हैं । इसलिये वह परपग्गृिहोना हुई और उसके सेवन से वृत का भङ्ग हुा । लेकिन लोक में वह परस्त्री नहीं मानी जानी ( क्योंकि पैसा लेने पर भी पूर्णरूप से वह किमी की स्त्री नहीं बनती) । इसलिये उम के सेवन में व्रत का अभङ्ग (ता) हुश्रा । पाठक देखें कि विधवाविवाद में वन का प्रभङ्ग (रक्षा) ही हे, मङ्ग बिलकुल नहीं है । लोक व्यवहार से कानून की दृष्टि से, तथा परस्त्री सेवन में जो संक्लेश होता है वह संक्लेश न होने से पुनर्विवाहिता स्वम्त्री ही है, इमलिये इस सेवन में वेश्यासेवन की अपेक्षा कई गणी वृत. रक्षा ( अमांश) है। साथ ही चश्या में तो परपरिगृही. तता है किन्तु इस में नाममात्र को भी परपरिगृहीतता नहीं है । जब कोई मनुष्य वेश्या के पास जाना है तब वह उस का पूर्ण अधिकारी नहीं बन सकता, क्योंकि उतना