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पित्रादि परतन्त्रत्वाद्वासनाथेत्यन्यस्त्री तो न विशिष्यते ) । जब कन्या भी परस्त्री है और विवाह द्वारा उस का परस्त्रीत्व दूर कर दिया जाता है तब कन्या के समान विधवा का भी पर स्त्रीत्व दूर कर दिया जावेगा । अथवा जैसे विधुर का परपुरुत्व दूर होता है उसी प्रकार विधवा का परस्त्रीत्व दूर हो
जायगा ।
ख़ैर, जब सागारधर्मामृत की बात चल पड़ी हैं तब हम भी कुछ लिख देना चाहते हैं । विधवाविवाहविरोधी, अपने अज्ञान तिमिर को हटा कर जग देखें ।
लागारधर्मामृत में वेश्यासेवी को भी ब्रह्मचर्याशुवनी माना है, क्योंकि ग्रन्थकार के मन से वेश्या, पर-स्त्री नहीं है । उनका कहना है कि "यस्तु स्वदाग्वत्साधारण स्त्रियांऽपि वनयितुमशक्तः परदारानेव वर्जयति सोऽपि ब्रह्मावतीष्यते" अर्थात् जो स्वस्त्री के समान वेश्या को भी छोड़ने में असमर्थ है सिर्फ परस्त्री का ही त्याग करता है वह भी ब्रह्मचर्यावती है । इसका मतलब यह है कि वेश्या, परस्त्री नहीं है, क्योंकि उसका कोई स्वामी मौजूद नहीं है । यदि ऐसी वेश्या का सेवन करने वाला श्रणुव्रती हो सकता है तो विधवासे विवाह करने वाला क्या अणवती नहीं हो सकता ? वेश्या, परस्त्री नहीं है, किन्तु वह पूर्णरूप से स्वस्त्री भी तो नहीं है । परन्तु जिस विधवा के साथ विवाह कर लिया जाता है, वह तां पूर्णरूप से स्वस्त्री हैं। कानून से वेश्या स्वस्त्री नहीं कहलाती, जबकि पुनर्विवाहिता स्वस्त्री कहलाती है। इतने पर भी अगर वेश्यासंत्री द्वितीय श्रेणी का श्रणुत्रती कहला सकता है तो विवाह करने वाला प्रथम श्रेणी का अयुवती कहला सकता है।
सागारधर्मामृत में जहाँ इन्वरिकागमन को ब्रह्मचर्याशुव्रत