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जीव और उसकी विविध अवस्थाएं
जीव सात तत्त्वों में 'जीव तत्व' सबसे प्रधान तत्त्व है । चेतना इसका मुख्य लक्षण है। समस्त सुख दुःख की प्रतीति इस चेतना से ही होती है। इसी चेतना के आधार पर समस्त जड़ द्रव्यों से इसकी अलग पहचान होती है। इसीलिए चेतना को इसका लक्षण कहा गया है। जीव की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है कि जो द्रव्य और भाव प्राणों से जीता है, जी चुका है तथा जिएगा वह जीव है । संसारी जीव शरीर, इन्द्रिय श्वासोच्छवास और आयु रूप चार प्राणों के आधार पर जीते हैं तथा मुक्तात्माओं में एक मात्र चेतना रूप भाव प्राण होते हैं। प्राणों के आधार पर जीने के कारण जीव को 'प्राणी' भी कहते हैं। नर-नारकादि विभिन्न पयार्यों में 'अतति' अर्थात निरंतर गमन करते रहने से इसे आत्मा भी कहते हैं। जंत. पुरुष ज्ञानी आदि अन्य नाम भी जीव के पाए जाते हैं।
जीव का अस्तित्व प्रायः समस्त आत्मवादी दर्शन आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं किंतु चवार्क जैसे भौतिकवादी दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है कि जीव नामक कोई पदार्थ प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होने से गधे के सींग की तरह नहीं है। यदि जीव होता तो उसे दिखना चाहिए था। जीव में जो चेतना दिखाई देती है वह पंचभूतों के संयोग से उत्पन्न हुई शक्ति मात्र है, जो जीव की मृत्यु होते ही समाप्त हो जाती है।
जैन दार्शनिकों का कहना है कि “मैं दुःखी हूं, सुखी हूं", आदि की जो प्रतीति होती है, वह इस चेतना का ही परिणाम है। यदि चेतना नाम का कोई स्वतंत्र पदार्थ नहीं है तो मृतक का शरीर पंचभतों से यक्त रहते हए भी चेतना शन्य क्यों रहता है। इसी चेतना रूप लक्षण के दृष्टिगोचर होने पर कई बार मृत घोषित जीव को चिता से भी लौटते देखा गया है। यह भी पाया गया है कि योग्योपचार करने के बाद वह प्राणी और भी अधिक समय तक जिया है। इसी प्रकार आए दिन समाचार पत्रों में छपने वाली पूर्व जन्म विषयक घटनाएं भी जीव के अस्तित्व को सिद्ध करती हैं।
1 चेतना लक्षणो जीवः सर्वा सि पृ ॥ 2 प्र. सामू 147 3 महापुराण 24/103-108