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जैन इतिहास-एक झलक/27
पुण्डरीक,7. दत्त,8. लक्ष्मण,9. कृष्ण ।
9 प्रतिनारायण-1. अश्वग्रीव, 2. तारक, 3. मेरक, 4. मधु, 5. निशुंभ, 6. बलि, 7. प्रहाद,8. रावण,9. जरासंध।
9 बलभद्र-1. अचल,2. विजय,3. भद्र, 4. सुप्रभ, 5. सुदर्शन, 6. आनंद, 7. नंदन, 8. राम,9. बलराम।
प्रथम तीर्थंकर ऋष अंतिम कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरूदेवी से ऋषभदेव उत्पन्न हुए। इनका जन्म अयोध्या में हुआ था। इन्हें वृषभनाथ भी कहा जाता है। चौबीस तीर्थंकरों में से आदिम/प्रथम होने के कारण इन्हें आदिनाथ भी कहा जाने लगा। जैन धर्म का प्रारंभ यहीं से माना जाता है। अपने पिता की मृत्यु के बाद ये राज्यसीन हुए। उन्होंने असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प आजीविका के साधनभूत इन छह कर्मों की विशेष रूप से व्यवस्था की तथा देश और नगरों को सुविभाजित कर संपूर्ण भारत को बावन जनपदों में विभाजित किया। लोगों को कर्मों के आधार पर इन्होंने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-इन तीन वर्णों की व्यवस्था की, इसलिए इन्हें प्रजापति कहा जाने लगा। इनकी दो पत्नियां थी-सुनंदा और नंदा । इनसे उन्होंने शतपुत्रों एवं दो पुत्रियों को जन्म दिया। जिनमें सुनंदा से भरत और ब्राह्मी तथा नंदा से बाहुबली और सुंदरी प्रमुख है। इन्होंने अपनी ब्राह्मी और सुंदरी नामक दोनों पुत्रियों को क्रमशः अंक और अक्षर विद्या सिखाकर समस्त कलाओं में निष्णात किया। ब्राह्मी लिपि का प्रचलन तभी से हुआ। आज की नागरी लिपि को विद्वान उसका ही विकसित रूप मानते हैं।
एक दिन राजमहल में नीलांजना नामक नृत्यांगना की नृत्य करते हुए ही आकस्मिक मृत्यु हो जाने से इन्हें वैराग्य हो गया। फलतः अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को समस्त राज्य का भार सौंपकर दिगंबरी दीक्षा धारण कर वन को तपस्या करने चले गए। भरत बहुत प्रतापी राजा हुए। उन्होंने अपने दिग्विजय द्वारा सर्वप्रथम चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। इसलिए इस देश का नाम इनके नाम के आधार पर भारत पड़ गया। जैनेतर साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है तथा विद्वानों ने भी इसमें अपनी सहमति प्रदान की है।
ऋषभदेव ने एक हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की। उसके परिणामस्वरूप उन्होंने कैवल्य प्राप्त कर समस्त भारत भूमि को अपने धर्मोपदेश से उपकृत किया। चूंकि उन्होंने अपने समस्त विकारों को जीत लिया था। इसलिए ये जिन कहलाए तथा इनके द्वारा प्ररूपित धर्म जैन धर्म कहलाने लगा। अपने जीवन के अंत में उन्होंने कैलाश पर्वत से मोक्ष/निर्वाण प्राप्त किया। इस प्रकार जैन धर्म का प्रवर्तन प्रारंभ हो गया और उसी समय से जैन धर्म पूरे राष्ट्र का धर्म बन गया।
जैन धर्म की उक्त मान्यता का समर्थन जैनेतर साहित्य एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के
1. (अ) देखें भरत और भारत
(ब)मार्कण्डेय पुराण-एक अध्ययन, पृ. 138 डॉ. वासदेवशरण अग्रवाल