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268/ जैन धर्म और दर्शन
नहीं समझा। और जो कुछ मैं जैन धर्म को अब तक जान सका हूं उससे मेरा यह दृढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे इस धर्म के मूल ग्रंथों को पढ़ने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैन धर्म का विरोध करने की कोई बात ही नहीं मिलती।
स्यात् शब्द सुनिश्चित रूप से बताता है कि वस्तु केवल इस धर्म वाली ही नहीं है, उसमें इसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म विद्यमान हैं। वाणी के द्वारा वस्तु का एक साथ प्रतिपादन संभव नहीं है इसलिए जिस या जिन धर्मों का कथन किया जाता है वे प्रधान हो जाते हैं और शेष गौण। 'स्यात्' शब्द अन्य अविवक्षित गुण धर्मों के अस्तित्व की रक्षा करता है। जैसे यह कलम लंबी है, गोल है, मोटी है, स्पर्श रूपादि अनेक गुण-धर्म उसके अंदर विद्यमान हैं। यदि कोई कहे कि 'स्यात्' यह कलम लंबी है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि शायद कलम लंबी है। लंबाई की दृष्टि से तो कलम लंबी ही है लेकिन कोई कलम लंबी है, ऐसा सुनकर कलम को लंबी ही न मान बैठे, इसलिए स्यात् लगाया गया है । 'स्यात्' शब्द का तो सिर्फ इतना ही उद्देश्य है कि वस्तु के विवक्षित किसी एक धर्म को ही पूर्ण वस्तु न मान ली जाए। वह वस्तु के विवक्षित धर्मवाची शब्द को वस्तु पर पूर्णाधिकार जमाने से रोकता है। 'स्यात्' शब्द कहता है कि “वस्तु का अस्तित्व बहुत विराट है। भाई ! कलम ! यह सत्य है कि तुम लंबी हो पर तुम सिर्फ लंबी ही नहीं हो। इस समय शब्द के द्वारा उच्चारित होने के कारण यद्यपि तुम मुख्य हो, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि सारी वस्तु पर ही तुम्हारा अधिकार हो । मोटाई, गोलाई आदि तुम्हारे शेष/अनंत धर्म भाई भी तुम्हारे ही तरह अस्तित्ववान हैं। वे भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने कि तुम ।"
'स्यात्' शब्द के इसी रहस्य को उजागर करते हुए प्रो. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने लिखा है कि- 'शब्द का स्वभाव है कि वह अवधारणात्मक होता है इसलिए अन्य का प्रतिषेध करने में वह निरंकुश हो जाता है । उस अन्य के प्रतिषेध पर अंकुश लगाने का कार्य 'स्यात्' करता है । वह कहता है कि 'रूपवान घटः' वाक्य घट के रूप का प्रतिपादन भले ही करे,पर वह रूपवान ही है यह अवधारण करके घड़े में रहने वाले रस, गंध आदि का प्रतिषेध नहीं कर सकता। वह अपने स्वार्थ को मुख्य रूप से कहे यहां तक तो कोई हानि नहीं पर यदि वह इससे आगे बढ़कर अपने ही स्वार्थ को सब कुछ मान शेष का निषेध करता है तो उसका ऐसा करना अन्याय है और वस्तुस्थिति का विपर्यास करना है। स्यात् शब्द इसी अन्याय को रोकता है और न्याय वचन पद्धति की सूचना देता है। वह प्रत्येक वाक्य के साथ अनुस्यूत रहता है, और गुप्त रहकर भी प्रत्येक वाक्य को मुख्य गौण भाव से अनेकांत अर्थ का प्रतिपादक बनाता है।
स्याद्वाद सुनय का निरूपण करने वाली विशिष्ट भाषा पद्धति है। स्यात् यह निश्चित रूप से बताता है कि वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है। उसमें इसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म समान हैं। उसमें अविवक्षित गुण धर्मों के अस्तित्व की रक्षा स्यात् शब्द करता
1. जैन दर्शन स्यादाद अंक पृ. 182 2. जैन दर्शन पृ.363