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________________ मुनि आचार | 243 हैं। कच्चे पानी तथा अग्नि को छूते तक भी नहीं हैं। अपनी सुविधा के लिए बिजली के पंखे, कूलर, हीटर आदि का भी उपयोग नहीं करते। फल-फूल, घास-पात आदि किसी भी प्रकार की वनस्पति का छेदन आदि नहीं करते। यहां तक कि उनका स्पर्श भी नहीं करते हैं। अहिंसा महावत के पालन के लिए वे हरी घासयुक्त भूमि पर भी नहीं चलते । त्रस जीवों के साथ सूक्ष्मतम जीवों का भी घात न हो, इसका ध्यान रखते हुए सावधानीपूर्वक उठत-बैठते हैं। उनकी संवेदनशीलता अत्यंत व्यापक होती है। वे ऐसा कोई भी कार्य नहीं करते जिससे किसी भी प्राणी को कष्ट पहुंचता हो। उक्त अहिंसा महाव्रत के ठीक तरह से पालन के लिए जैन मुनि सनत् अपने मन पर नियंत्रण बनाए रखते हैं। वाणी पर भी अंकुश रखते हैं। चलने-फिरने, उटने-बैठने की क्रियाओं में पूर्ण सावधानी बरतते हैं तथा प्राकृतिक प्रकाश में दिन में एक बार ही भोजन (आहार) लेते हैं। ये पांचों अहिंसा व्रत की भावनाएं हैं।' सत्य महाव्रत-सत्य के बिना अहिंसा का पालन नहीं हो सकता। असत्य हिंसा का जनक है। अतः जैन मुनि कभी भी असत्य वचनों का प्रयोग नहीं करते। हमेशा हित, मित और प्रिय वचनों का ही प्रयोग करते हैं। वे निष्ठुर और कर्कश वचनों का प्रयोग न कर सदा निर्दोष. अकर्कश और असंदिग्ध वचन ही बोलते हैं। कषायों से प्रेरित होकर जानबझकर अथवा अज्ञानवश प्रयोग किये जाने वाले कठोर वचन दोषयुक्त होने के कारण त्याज्य हैं। इसी प्रकार वे संदिग्ध अथवा अनिश्चय की दशा में निश्चय वाणी का प्रयोग नहीं करते। पूर्णतया निश्चित हो जाने पर ही निश्चित वाणी बोलते हैं। वे सत्य, मृदु और निर्दोष भाषा ही बोलते हैं तथा सत्य होने पर भी किसी की अवज्ञा सूचक वचनों का प्रयोग नहीं करते, वरन् सम्मान सूचक शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। संक्षेप में कहें तो जैन मुनि विचार व विवेकपूर्वक संयमित सत्य भाषा का ही प्रयोग करते हैं। क्रोध के आवेग में लोभ, लालच में फंसकर, भयवश एवं हंसी-मजाक में मुख से असत्य वाणी निकलने की संभावनाएं रहती हैं। इसलिए जैन मुनि मत्य महाव्रत की रक्षा के लिए क्रोध, लोभ, भय एवं व्यर्थ की हंसी-मजाक का त्याग करते हैं। तथा सोच-समझकर विवेकपूर्ण वचनों का ही प्रयोग करते हैं। ये पांचों सत्य महाव्रत की भावनाएं हैं। अचौर्य महाव्रत : अचौर्य महाव्रत को धारण करने वाले जैन मुनि बिना दी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करते । वे जल, मिट्टी और तिनके जैसी वस्तु भी बिना अनुमति के ग्रहण करना चोरी समझते हैं। किसी की गिरी हुई,भृली हुई या रखी हुई अल्प या अधिक मूल्य वाली वस्तु को छूना तक निषिद्ध मानते हैं। ग्रामानुग्राम में विहार करते हुए गृह-स्वामी को अनुमति के बिना किसी भवन में विश्राम भी नहीं करते । जिस प्रकार बिना दी हई वस्तु वे स्वयं ग्रहण नहीं करते उसी प्रकार दूसरों से करवाते भी नहीं हैं तथा करने वालों का समर्थन भी नहीं करते। अचौर्य महाव्रत की स्थिरता और सुरक्षा के लिए वे जिसमें कोई नहीं रहता ऐसे गिरि, गुफा आदि शून्य घरों में ही आवास करते हैं। दूसरों के द्वारा छोड़े हुए मकान, जिसका कोई 1. त. सू. 7/4 2. त. सू. 7/5
SR No.010222
Book TitleJain Dharm aur Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramansagar
PublisherShiksha Bharti
Publication Year
Total Pages300
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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